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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास (२।५०।१-९३), बौधा० गृ० सू० (१।२०) एवं हेमाद्रि (व्रत, जिल्द २, पृ० १०३६-१०५१) ने हाथियों के रोगों के निवारण के लिए शान्तियों की व्यवस्था दी है, अतः बौधा० गृ० सू० से गजशान्ति का वर्णन उपस्थित किया जा रहा है जो सम्भवतः सबसे प्राचीन और सरल है-- ___ "किसी मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी या चतुर्दशी तिथि को या श्रवण नक्षत्र में स्वामी को चाहिए कि वह ब्राह्मणों को भोजन दे और उनसे घोषित कराये 'यह शुभ दिन है, कल्याण हो, समृद्धि हो।' वह सर्वप्रथम तिल एवं चावल की हवि तैयार करे, गायत्री मन्त्र (ऋ० ३।६२।१०) का पाठ करके जल लाये, दो घड़ों का मुख नये वस्त्र से गायत्री मन्त्र के साथ ढंक दे और उनके ऊपर नारियल या कोई फल रख दे तथा पका चावल पश्चिम दिशा में रखे और दोनों घड़ों को पाँच दूर्वा-दलों पर रख दे। इसके उपरान्त हस्तिशाला को दर्भ की मालाओं से सज्जित करके अग्नि में भोजन छोड़े, जिसकी गंध हाथी को मिले। तब स्वामी अश्वत्थ का चम्मच (चमस), ईधन एवं दर्भ घास तैयार रखता है। इसके उपरान्त वह साधारण होम की क्रिया करता है और घृतसूक्त (ऋ० ८१८१।१-९) का पाठ करता है। तब पुरोहित घृत एवं पाँच मन्त्रों (तै० सं० ४।५।१-५) के साथ १००८ अतिरिक्त आहुतियाँ देता है। इसके उपरान्त स्विष्टकृत आहति से लेकर गोदान की क्रियाविधि अपनायी जाती है। तब पवित्र अग्नि के समक्ष 'भूतों को स्वाहा' के साथ शेष भोजन को दूर्वा पर रखा जाता है। इसके उपरान्त वह (पुरोहित) थाली में रखे भोजन को हाथी को खिलाता है और आयुष्यसूक्त के पाठ के साथ घड़ों के नोचे की पाँच दूबों को खिलाता है। इसके उपरान्त वह (पुरोहित) प्रणीता का जल छिड़कता है और 'आपो हि ष्ठा' (ऋ० १०।९।१-३) आदि के साथ हाथी को पवित्र करता है। तब हाथी हस्तिशाला में लाया जाता है। वह लम्बी आयु वाला हो जाता है।" अग्निपुराण (अध्याय २९१) में वर्णित गजशान्ति पूर्णतया भिन्न है। विष्णुधर्मसूत्र (२।५०।१-९३) में इसका अति विस्तार है। हेमाद्रि (व्रत, भाग २, पृ० १०३६-१०५१) में भी इसका विशद वर्णन है जो 'पालकाप्य' द्वारा उद्घोषित है। अमरकोश में हाथियों के आठ प्रकार हैं, जिनमें प्रत्येक एक दिशा से सम्बन्धित है, यथा-- ऐरावत, पुण्डरीक, वामन, कुमुद, अञ्जन, पुष्पदन्त, सार्वभौम एवं सुप्रतीक। और देखिए उद्योगपर्व (१०३। ९.१६), द्रोणपर्व (१२१।२५-२६), जहाँ दिग्गजों का उल्लेख है। विष्णुधर्मोत्तर (२।५०।१०-११) में आठ नाम हैं, किन्तु वहाँ सार्वभौम के स्थान पर नील नाम आया है। हेमाद्रि के कतिपय श्लोक हस्त्यायुर्वेद (आनन्दाश्रम संस्करण, अध्याय ३५ एवं ३६) से उद्धृत हैं। किन्तु हम यहाँ अधिक वर्णन नहीं उपस्थित कर सकेंगे। ___ बृहत्संहिता (९२।१-१४), बृहद्योगयात्रा (२२।१-२१) एवं योगयात्रा (११।१-१४) में घोड़ों की चालों, हिनहिनाने, कूद-फाँद, टाप से पृथिवी कुरेदने तथा उनके आसनों आदि के शुभाशुभ प्रतिफलों का उल्लेख पाया जाता है, किन्तु वहाँ किसी प्रकार की शान्ति का वर्णन नहीं है, अतः हम अन्य बातें यहाँ नहीं देंगे। अग्निपुराण (२९०।१-८), विष्णुधर्मोत्तर (२।४७।१-४२), बौ० गृ० सू० (१।१९) एवं हेमाद्रि में एक शान्ति का उल्लेख है जिसके द्वारा घोड़ों के रोगों का निवारण होता है। स्थानाभाव से इस शान्ति का उल्लेख यहाँ नहीं किया जा रहा है। शान्तियों का सम्बन्ध शकुनों से भी है। ऋग्वेदसंहिता (४।२६।६, ९।८६।१३, ९।९६।१९ एवं २३, ९।१०७।२०, ९।११२१२, १०।६८७ आदि) में 'शकुन' का अर्थ है 'पक्षी' और वह 'शकुनि' (ऋ० २।४२।१, २२. प्रणीता जल वह है जो अग्नि के उत्तर एक पात्र में मन्त्र-पाठ के साथ रख दिया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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