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________________ पल्लीपतन, अंग-स्फुरण, हाथी-घोड़ों के लिए शान्ति ३६५ राजा के कल्याण की चिन्ता की जाती है (जिससे प्रजा स्वतः सुखी हो जाय ) । स्थानाभाव से इसका उल्लेख नहीं किया जायगा । बृहद्ययात्रा (१३/१-१०), मत्स्य० (२४१।१-१४), वसन्तराज ( ६ ४ / १-१४, पृ० ८७-९२ ) में स्पन्दन या स्फुरण से सम्बन्धित अग्रसूचकों के विषय में विशद उल्लेख है । तीनों ग्रन्थों में समान बातें पायी जाती हैं। वसन्तराज अन्य दोनों ग्रन्थों पर आधारित है, इसमें सन्देह नहीं है । वराहमिहिर मत्स्य० पर आधारित है कि मत्स्य वराहमिहिर पर, कहना कठिन है; यह भी सम्भव है कि दोनों किसी अन्य ग्रन्थ पर आधारित हैं। हो सकता है कि वराहमिहिर ने मत्स्य० से उधार लिया हो । पुरुष के दाहिने अंगों का स्फुरण ( स्पन्दन) शुभ एवं बायें का अशुभ होता है। यही बात नारियों में उलटी है। सिर से लेकर पाँव तक के अंगों के स्पन्दनों के फलों का वर्णन बहुत स्थान ग्रहण कर लेगा । केवल दो-एक उदाहरण यहाँ पर्याप्त होंगे। ललाट के स्फुरण से पृथिवी लाभ होता है; मस्तक से प्राप्त धन की वृद्धि होती है; भूनस ( भौंह और नाक के मध्य स्थल) से प्रियसंगम होता है; आँख-स्थल से मृत्यु होती है; आँख के पास से धनागम होता है; बाहुओं से मित्र-स्नेह मिलता है; हाथ से धनागम होता है; पीठ से पराजय मिलती है; छाती से सफलता प्राप्त होती है और पैर के ऊपरी भाग से उत्तम स्थान की प्राप्ति होती है; पादतल से धन लाभ के साथ यात्रा होती है। मत्स्य० (२४१।१४ ) में आया है कि अशुभ लक्षणयुक्त स्पन्दनों में ब्राह्मणों को सुवर्ण दान से प्रसन्न करना चाहिए। अति प्राचीन काल से अंगों का प्रस्फुरण (विशेषतः हाथ एवं आँख का ) भावी शुभ एवं अशुभ घटनाओं का सूचक माना जाता रहा है । मनु ने उत्पातों या निमित्तों, नक्षत्रों या अंगविद्या से अग्रसूचनाओं की घोषणा करके भिक्षा मांगना संन्यासियों (परिव्राजकों) के लिए वर्जित ठहराया है (मनुस्मृति ६।५० ) । कालिदास ने नायक के बाहु के फड़कने एवं शकुन्तला की दाहिनी आँख के फड़कने से उत्तम भाग्य की घोषणा की है । " शेक्सपियर ने अपने नाटक 'ओथेलो' में डेसडेमोना से कहलवाया है कि उसकी आँखों की खुजली से अशुभ लक्षण प्रतीत होता है। बृहद्योगयात्रा (१३।१०), बृ० सं० (५१।१० ) एवं वसन्तराज ने घोषित किया है कि तिलों, घावों, चिह्नों एवं मस्सों ( शरीर के) के स्फुरणों से वैसे ही फल प्राप्त होते हैं जो उनके स्थान वाले शरीरांगों से उत्पन्न माने जाते हैं। बृहत्संहिता ( ९३।१-१४), बृहद्योगयात्रा ( २१११ - २१ ) एवं योगयात्रा ( १०११-७५ ) में रणयात्रा के अवसर पर हाथियों के दाँतों की व्यवस्था, दाँतों के कट जाने पर उनके चिह्नों, हाथियों के थक जाने के स्वरूप एवं उनकी गतियों के आधार पर अग्र सूचनाओं के विषय में सविस्तार उल्लेख मिलता है । किन्तु इस विषय में किसी शान्ति की चर्चा नहीं है, अतः हम यहाँ कुछ विशेष नहीं लिखेंगे। अग्निपुराण ( २९१।१-२४), विष्णुधर्मोत्तर २०. देखिए मन ( ६।५०) : न चोत्पातनिमित्ताभ्यां न नक्षत्रांगविद्यया । नानुशासनवादाभ्यां भिक्षां लिप्सेत कर्हिचित् ॥ टीकाकारों ने अंगविद्या के कई अर्थ किये हैं । सम्भवतः यह सामुद्रिक है। मुनि पुण्यविजय ने अंगविज्जा नामक एक प्राकृत ग्रन्थ का प्रकाशन किया है, जिसमें निमित्तों के आठ प्रकार कहे गये हैं: अंग, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन, स्वप्न, चिह्न, भौम एवं आन्तरिक्ष । और देखिए शाकुन्तल, अंक ५, श्लोक ११ एवं अंक ७, श्लोक १३ । २१. इति पिटकविभागः प्रोक्त आ मूर्धतोयं व्रणतिलकविभागोप्येवमेव प्रकल्प्यः । भवति मशकलक्ष्मावर्त जन्मापि na forfenफलकारि प्राणिनां वेहसंस्थम् ॥ बृहत्संहिता ( ५१।१० ) ; मशकं तिलकं पिटकं वापि व्रणमथ चिह्नं किमपि कदापि । स्फुरति पदान्यधितिष्ठति यावत्स्यात् पूर्वोक्तं फलमपि तावत् ॥ वसन्तराज० ( ६ |४|११, पृ० ९१) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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