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क्रूर नक्षत्र, त्रिक-जनन, अपशकुन, स्वप्न आदि की शान्ति
योग या वैधृति या ग्रहण पर, या जुड़वां जन्मों, या तीन पुत्रों के उपरान्त कन्या के जन्म या तीन कन्याओं के उपरान्त पुत्र के जन्म पर की जाने वाली शान्तियां। इनमें कुछ आज भी सम्पादित होती हैं। मूल नक्षत्र का जन्म वही फल देता है जो ज्येष्ठा एवं आश्लेषा वाला देता है। स्थानाभाव से हम इन शान्तियों का उल्लेख नहीं कर सकेंगे।
कौशिकसूत्र (कण्डिका ११० एवं १११), बृ० सं० (४५।५१-५४) एवं अद्भुतसागर (पृ० ५५९-५६९) में स्त्रियों, गौओं, घोड़ियों, गदहियों आदि के प्रसव के विषय में प्रभूत वर्णन मिलता है। कुछ बातें यहाँ दी जा रही हैं। वराह का कथन है : ‘जब स्त्री एक ही समय में दो या तीन या चार या अधिक बच्चे जनती है या अद्भुत रूप वाला बच्चा (राक्षस या राकस) उत्पन्न करती है, या जब समय से बहुत पहले ही बच्चे उत्पन्न हो जाते हैं तब देश या कुल का नाश हो जाता हैं' (४५।५२) । और देखिए मत्स्य० (२३५।१-३) एवं विष्णुधर्मोत्तर (२।१४०।१-३)। इसी प्रकार सर्वप्रथम अद्भुत रूप वाले बच्चों के जन्म, वेदज्ञों की पत्नियों द्वारा मोर, गृद्ध आदि के जन्म, घोड़ियों द्वारा बछड़े एवं शृगालिन द्वारा कुत्ते के जन्म, चार या पाँच कन्याओं के जन्म के विषय में भीष्म० (३।२-७) में उल्लेख है। बृ० सं० (४५।५३-५४) में आया है : यदि वडवा (घोड़ी), ऊँटिन, भैस, गोहस्ती को जुड़वाँ बच्चे उत्पन्न हो जाते हैं तो वे मर जाते हैं। ऐसे जन्मों का प्रभाव ६ मासों तक रहता है। गर्ग ने इसके लिए दो श्लोकों की शान्ति की व्यवस्था दी है। जो व्यक्ति अपना भला चाहता है उसे जुड़वाँ या राक्षस उत्पन्न करने वाली स्त्रियों को दूसरे देश में भेज देना चाहिए, उसे ब्राह्मणों को उनकी इच्छा के अनुकूल दान देना चाहिए और शान्ति-सम्पादन करना चाहिए। विचित्र जन्म देने वाले पशुओं को उनके झुण्डों से पृथक् कर अन्य देशों में त्याग देना चाहिए, नहीं तो नगर, स्वामी एवं यूथ (पशु-समूह) का नाश हो जायगा। "
__ भविष्य को जानने के कई ढंग होते हैं, यथा (१) ग्रहों एवं नक्षत्रों की स्थिति, (२) व्यक्तियों की जन्म-पत्रिकाएँ, (३) खंजन एवं कौओं आदि की उड़ान एवं बोलियाँ, (४) प्राकृतिक घटनाएँ (ग्रहण, उल्काएँ आदि), (५) स्वप्न, (६) अचानक सुने गये स्वन, (७) मनुष्यों, पशुओं आदि की दैहिक एवं मानसिक दशाएँ। प्रथम चार के वर्णन हो चुके हैं। अब हम स्वप्नों का विवरण उपस्थित करेंगे।
यह हमने बहुत पहले ही देख लिया है कि वैदिक साहित्य में स्वप्नों का सम्बन्ध भाग्य या अभाग्य से लगाया गया है। रामायण-महाभारत, आथर्वण-परिशिष्ट (स्वप्नाध्याय, ६८, पृ० ४३८-४४९), बृहद्योगयात्रा (१६।१-३१), पुराणों (वायु १९।१३-१८; मत्स्य २४२; विष्णुधर्मोत्तर २॥१७६; भविष्य २१९४; ब्रह्मवैवर्त, गणेश-खण्ड ३४। १०-४० आदि) में अच्छे-बुरे स्वप्नों का उल्लेख है। अग्निपुराण (२२९, जिसके बहुत से श्लोक मत्स्य० २४२; भोजकृत भुजबल०, पृ० २९८-३०४ में पाये जाते हैं) एवं अद्भुतसागर (पृ० ४९३-५१५) में विस्तार के साथ स्वप्नों एवं उनकी शान्तियों का उल्लेख है। शंकराचार्य ने वेदान्तसूत्र (३।२।४) की टीका में कहा है कि स्वप्नाध्याय के पाठक यह घोषित करते हैं कि हाथी आदि पर चढ़े हुए अपने को देखना शुभ है तथा गदहों से खींचे जाते हुए वाहन पर अपने को बैठा देखना अशुभ है। ऐसा प्रकट होता है कि अंगिरा जैसे प्राचीन लेखकों में विरले लोग ही ऐसा कहते हैं--'ग्रहों की गतियाँ, स्वप्न, निमित्त (आँख फड़कना आदि), उत्पात संयोग से ही कुछ फल उत्पन्न करते हैं; समझदार लोग उनसे भीत नहीं होते।'१६ बहुत-से अवसरों पर रामायण में कतिपय स्वप्नों का उल्लेख हुआ
१६. गीतश्चायमर्योऽङ्गिरसा। ग्रहाणां चरितं स्वप्ननिमित्तौत्पातिक तथा। फलन्ति काकतालीयं तेभ्यः प्राज्ञा न बिभ्यति ॥ वेणीसंहार (२०१५)।
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