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धर्मशास्त्र का इतिहास
दीप्तिमान् सन्ध्या, महाध्वनि वाला तूफान ( महावात ), सूर्य एवं चन्द्र के मण्डल, आकाश में धूलि, वन में धूम, रक्तिम सूर्योदय एवं सूर्यास्त, वृक्षों से भोजन एवं रसों की प्राप्ति की सम्भावना, तैलयुक्त पदार्थ, कतिपय पुष्प एवं फल, गायों एवं पक्षियों में काम-सम्बन्धी क्रियाएँ। निम्नोक्त ग्रीष्म ( ज्येष्ठ एवं आषाढ़) में शुभ हैं : नक्षत्रों एवं उल्काओं के पात से गगन का धूमिल हो जाना, या जिसमें सूर्य एवं चन्द्र तिमिराच्छन्न हो जायँ, जो बिना अग्नि के भयंकर अग्निज्वाला से परिपूर्ण लगे, महास्वन, घूम, धूलि एवं प्रचण्ड वात, जिसमें सन्ध्या लाल कमल-सी दीख पड़े और जो अन्धयुक्त समुद्र-सा प्रतीत हो और जब नदियाँ शुष्क हो जायँ । वर्षा (श्रावण एवं भाद्रपद) में निम्नोक्ति भयंकर नहीं हैं : इन्द्रधनुष, मण्डल, बिजली, शुष्क वृक्षों से अंकुर निकलना, पृथिवी का हिलना, चक्कर लगाना य असाधारण रूप धारण करना, पृथिवी में स्वन होना या उसमें महाछिद्र बन जाना या झीलों एवं नदियों में बहुत पानी हो जाना, अर्थात् बाढ़ का दृश्य उपस्थित हो जाना, कूपों का लबालब भर जाना, पर्वतों पर से घरों का लुढ़कना । शरद् (आश्विन एवं कार्तिक) में निम्न बुरे नहीं हैं : दिव्य नारियों ( अप्सराओं ), प्रेतों, गन्धर्वो, विमानों एवं अन्य अद्भुतों के दर्शन, गगन में दिन में भी ग्रहों, नक्षत्रों एवं अन्य तारों का दिखाई पड़ जाना, वनों, पर्वतों पर संगीत एवं गान का सुनाई पड़ जाना, अनाज के पौधों की अधिकता एवं जलाभाव | हेमन्त (मार्गशीर्ष एवं पौष) में निम्न शुभ हैं ठण्डी वायु एवं तुषारपात, पशु-पक्षियों की ऊँची बोलियाँ, राक्षसों, यक्षों तथा अन्य अदृश्य जीवों का प्रकट हो जाना; अमानुषी स्वर, आकाश एवं दिशाओं का तिमिराच्छन्न हो जाना, वनों एवं पर्वतों का धूमिल हो जाना, सूर्योदय एवं सूर्यास्त का ऊँचाई पर हो जाना । शिशिर ( माघ एवं फाल्गुन) में निम्न दर्शन शुभ हैं: वर्फ गिरना, तीखी हवाएँ, भयंकर जीवों एवं अद्भुतों का प्रकटीकरण, नक्षत्रों एवं उल्काओं के पात से गगन का अंजन- सदृश एवं लोहित-पीत हो जाना, नारियों, गायों, भेड़ों, खच्चरों, पशु-पक्षियों में असामान्य शिशुउत्पत्तियाँ, पत्तियों, अंकुरों एवं लताओं का विचित्र रूप धारण कर लेना । उपर्युक्त बातें जब अपनी ऋतुओं में घटती हैं तो शुभ होती हैं, किन्तु अन्य कालों में घटने पर वे भयंकर उत्पात एवं अद्भुत की द्योतक होती हैं ।
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महाभारत, कौशिकसूत्र ( कण्डिका १०५ ), मत्स्य ० ( २४३), विष्णुधर्मोत्तर, बृहत्संहिता, अद्भुतसागर ( पृ० ४२५-४३६), हेमाद्रि (व्रत, खण्ड २, पृ० १०७८-१०७९) एवं मदनरत्न (शान्ति) में एक विचित्र घटना का उल्लेख है और वह है देवों की प्रतिमाओं का कम्पन, नृत्य, हास, रुदन । भीष्मपर्व ( ११२।११) में कौरवों के मन्दिरों की मूर्तियों के सम्बन्ध में ऐसा उल्लेख है ।" और देखिए मत्स्य० ( १६३।४५-४६, पद्म० ५।४२।१३७-१३८) जहाँ हिरण्यकशिपु-नृसिंह युद्ध के समय की देव-प्रतिमाओं की अस्तव्यस्तता का वर्णन है ।" आथर्वण-परिशिष्ट (५२)
यह वर्णन गद्य में हुआ है। इन विचित्र लीलाओं से अनावृष्टि, अस्त्र-भय, दुर्भिक्षा महामारी, राजा एवं मन्त्रियों के नाश की सम्भावनाएँ होती हैं। इसके लिए शान्ति की व्यवस्था है, जिसकी चर्चा यहाँ नहीं होगी ।
मानव-जन्म से सम्बन्धित शन्तियाँ कई हैं जो विभिन्न प्रकारों, रूपों एवं दशाओं में हुए जन्मों पर आधारित हैं, यथा मूल, आश्लेषा, ज्येष्ठा नक्षत्र, गण्डान्त आदि में हुए जन्मों, कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी या अमावस्या, व्यतीपात
१४. अथ तद्दैवतानि नृत्यन्ति च्योतन्ति हसन्ति गायन्ति वान्यानि वा रूपाणि कुर्वन्ति य आसुरा मनुष्या मा नो विदन्नमो देववर्धम्य इत्यभयैर्जुहुयात् । सा तत्र प्रायश्चित्तिः । कौशिकसूत्र ( १०५) ।
१५. देवायतनस्थाश्च कौरवेन्द्रस्य देवताः । कम्पन्ते च हसन्ते च नृत्यन्ति च रुवन्ति च ॥ भीष्मपर्व ( ११२।११) । उन्मीलन्ति निमीलन्ति हसन्ति च रुदन्ति च । विक्रोशन्ति च गम्भीरा धूमयन्ति ज्वलन्ति च । प्रतिमाः सर्वदेवानां वेदयन्ति महद्भयम् ॥ मत्स्य० ( १६३।४५-४६, पद्म० ५।४२।१३७ - १३८) ।
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