________________
ग्रहण, उत्पात, उल्कापात-आदि को शान्ति
३५९
अद्भुतसागर नामक विशाल ग्रन्थ में मण्डलों, इन्द्रधनुषों, तूफानों (महावातों), दिग्दाहों, उल्कापातों, धूमकेतुओं, भूचालों, घनरहित वर्षा, रक्तवर्षा, मत्स्य-वर्षा आदि विरल प्राकृतिक घटनाओं का उल्लेख है, जिनमें कुछ के विषय में संक्षेप में यह है-बृहत्संहिता (३२।१२) में भूचाल के विषय में पहले के चार आचार्यों के मत प्रकाशित हैं : यह समुद्र में रहने वाले जीवों से उत्पन्न होता है (काश्यपमत); पृथिवी के भार को ढोने से थकित दिग्गजों की लम्बी श्वासों से इसकी उत्पत्ति होती है (गर्ग आदि का मत); आकाश में प्रचण्ड वायु के पारस्परिक घातप्रतिघात एवं भूमि पर गिरने से भूचाल-स्वर होता है (वसिष्ठ आदि); यह अदृष्ट (पृथिवी के लोगों के पापों) से उत्पन्न होता है (वृद्धगर्ग आदि आचार्य)। देखिए बृ० सं० (३२।३-७, ३२।८-२२), अद्भुतसागर (पृ० ३८३४०९), द्रोणपर्व (७७।४) एवं शल्यपर्व (५६।१० एवं ५८।४९)।
यद्यपि वराहमिहिर के पहले से ग्रहणों के वास्तविक कारण ज्ञात थे, किन्तु सामान्य जन में शतियों तक (और आज भी) कुछ विचित्र विश्वास रहा है। वराह ने वृद्ध गर्ग एवं पराशर जैसे प्राचीन आचार्यों की आलोचना की है, क्योंकि उन्होंने ग्रहण का कारण बुध से युक्त पाँच ग्रहों का संयोग माना है और सूर्य के मण्डल एवं मन्द किरणों को निमित्त माना है।" हम ग्रहण की शान्ति के विषय में स्थानाभाव से यहाँ कुछ और नहीं लिखेंगे। • देखिए नि० सि० (पृ० ६८)।
उल्कापातों में भी शान्ति की व्यवस्था थी। इनके विषय में कई प्रकार की धारणाएँ थीं। गर्ग के अनुसार उल्काएँ लोकपालों द्वारा फेंके गये क्षेपणास्त्र-शस्त्र हैं जो शुभ या अशुभ घटनाओं का निर्देश करते हैं। कुछ लोगों के मत से ये वास्तव में वे महात्मा हैं जो स्वर्ग में अपने अच्छे कर्मों को भोगकर पृथिवी पर पुनः जन्म लेने को आते हैं। ये भयंकर अवसरों पर भी गिरती हैं, यथा शल्यपर्व (५८।५०-५१) में व्यक्त है कि भीम से गदायुद्ध करते समय जब दुर्योधन गिरा तो जलती हुई उल्का भयंकर स्वर एवं प्रचण्ड वात के साथ पृथिवी पर गिरी। और देखिए द्रोणपर्व (७।३८-३९), मत्स्य० (१६३।४३) एवं अद्भुतसागर (पृ० ३४२)। उल्कापातों में अमृता महाशान्ति करने की व्यवस्था है।
कुछ प्राकृतिक रूप, जो कुछ कालों में उत्पात कहे जाते हैं, अन्य अवसरों पर वैसे नहीं समझे जाते । बु० सं० (४५।८२) में आया है : मधु एवं माधव (चैत्र एवं वैशाख) में निम्नोक्त शुभ हैं—विद्युत्, उल्कापात, भूचाल,
१०. ब्रह्मपुराण (२११२३-२४) में भूचाल का एक भिन्न कारण बताया गया है : 'यदा विजृम्भतेऽनन्तो • मदापूणितलोचनः। तदा चलति भूरेषा सावितोयाधिकानना ॥'
११. न कथंचिदपि निमित्तैर्ग्रहणं विज्ञायते निभित्तानि। अन्यस्मिन्नपि काले भवन्त्ययोत्पातरूपाणि ॥ पंचग्रहसंयोगान्न किल ग्रहणस्य सम्भवो भवति। तैलं च जलेष्टभ्यां न विचिन्त्यमिदं विपश्चिद्भिः॥ बृ० सं० (५। १६-१७)।
१२. लोकपाल चार दिशाओं एवं चार मध्य दिशाओं के स्वामी या रक्षक हैं जो पूर्व से आरम्भित हो क्रम से यों हैं : इन्द्र, अग्नि, यम (दक्षिण के), सूर्य, वरुण (पश्चिम के), वायु, कुबेर (उत्तर) एवं सोम। कुछ ग्रन्थ सूर्य के स्थान पर निऋति को रखते हैं। मनु (५।९६)।
१३. उल्कास्वरूपमाह गर्गः। अस्त्राणि विसृजन्त्येते शुभाशुभनिवेदकाः। लोकपाला महात्मानो लोकानां ज्वलितानि तु॥ उत्पल (बृ० सं० ३३॥१) एवं अ० सा० (पृ० ३२१) : दिवि भुक्तशुभफलानां पततां रूपाणि यानि तान्युल्काः । वृ० सं० (३३३१)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org