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धर्मशास्त्र का इतिहास
श्रीसूक्त, रुद्र, आयुष्यमन्त्रों, पुरुषसूक्त तथा विशेषतः पूर्व वेद का पाठ करता है। उसे होम समाप्त कर पूर्णाहुति देनी चाहिए। इसके उपरान्त यजमान (कृत्यकर्ता, जिसने ६० वर्ष पूरे कर लिये हों) पर पात्र से जल छिड़क जाता है, ऐसा ही उसकी पत्नी, सगे सम्बन्धियों के साथ भी किया जाता है। इसके उपरान्त शान्तिमन्त्र, पुरुष सूक्त, ऋ० (१०।१८।१) का मन्त्र, आयुष्य मन्त्र, पावमान मन्त्र, शिवसंकल्प के ६ मन्त्रों (वाज० सं० ३२।१-६) एवं महाशान्ति का जप किया जाता है। इसके उपरान्त ऋत्विक् को पात्र, अभिषेक से सिक्त वसन, बछड़े के साथ सजायी हुई गाय का दान किया जाता है। ब्राह्मणों को दस दान एवं एक सौ मानों का सोना दिया जान चाहिए। यजमान को आज्यावेक्षण करना चाहिए और सभी जीवों (कौओं आदि) को बलि देनी चाहिए। इसके उपरान्त उसे ब्राह्मणों से आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए और नवीन वस्त्र धारण करना चाहिए। इसके उपरान्त उसे नीराजन करके देवों को नमस्कार करना चाहिए तथा एक सहस्र या सौ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और तब अपने सम्बन्धियों के साथ स्वयं भोजन करना चाहिए। जो कोई इस शान्ति को ग्रहशान्ति के लिए प्रतिपादित नियमों के अनुसार करता है वह निश्चित रूप से सौ वर्षों तक जीएगा, सभी अभाग्य दूर होंगे और सभी समृद्धि उसकी होगी।
' इस शान्ति को 'उग्ररथ' क्यों कहा गया है, कहना कठिन है। एक अन्य शान्ति ७० वर्ष की पूर्णता या ७७६ वर्ष के ७ वें मास की ७ वीं रात्रि को की जाती है, जिसे भैमरथी-शान्ति कहा जाता है (शब्दकल्पद्रुम) बौ० गृ० शेषसूत्र (१।२४) में एक शान्ति का उल्लेख है जो सौ वर्षों या १००० अमावास्याओं की समाप्पि पर की जाती है।
शान्ति-सम्पादन के काल के विषय में सामान्य नियम यह है कि यह कभी भी अवसर पड़ने पर होता है यथा स्वप्न में देखे गये शकुनों से निर्देशित दुष्ट फलों के निवारण, ग्रहों के दुष्ट या बुरे फलों, उत्पातों आदि सुरक्षा पाने आदि के लिए। इसके लिए सूर्य के उत्तरायण, शुक्ल पक्ष आदि के लिए बाट नहीं जोही जाती शान्ति-सम्पादन दक्षिणायन एवं मलमास में भी हो सकता है (मलमासतत्त्व, पृ० ७९६ ; कृत्यकल्प०)। यदि शीघ्रत न हो तो यह सम्पादन किसी शुभ दिन, शुभ तिथि, नक्षत्र में हो सकता है, यथा तीन उत्तराओं, रोहिणी, श्रवण धनिष्ठा, शततारका, पुनर्वसु, स्वाती, मघा, अश्विनी, हस्त, पुष्य, अनुराधा एवं रेवती में (धर्मसिन्धु, पृ० १७६) लक्षहोम का सम्पादन शुभ-ग्रहों एवं नक्षत्रों में होना चाहिए (मत्स्य० ९३।८६)। कोटिहोम का सम्पादन चैत्र या कार्तिक में होना चाहिए (मत्स्य० २३९।२०-२१)।
___ अद्भुतों एवं उत्पातों के लिए महाशान्ति की व्यवस्था है। इसके विस्तार के विषय में विभिन्न ग्रन्थों । विभिन्न बातें हैं। देखिए अद्भुतसागर (पृ० ३४१), शान्तिमयूख (पृ० १०६-१०८) एवं कमलाकरकृत शान्ति रत्न। इसका सम्पादन रजस्वला होने पर (निर्णयसिन्धु, पृ० २३३), राज्याभिषेक, रण-यात्रा, दुःस्वप्नों, अशु निमित्तों आदि में (भविष्योत्तर,१४३।२-४६) होता है। जब अशुभ ग्रह हों; उल्कापात हो; केतु-दर्शन हो; अन्धा भकम्प हो; मल या गण्डान्त में जन्म हो; जड़वाँ उत्पन्न हों; जब छत्र या झण्डे-पथिवी पर गिर जायें: जब कौओं उल्ल या कबतर गह में प्रवेश कर जायें; जब पाप (दृष्ट) ग्रह वक्र (विशेष जन्म-राशि या नक्षत्र में) हों: जा बहस्पति, शनि, मंगल एवं सूर्य क्रम से प्रथम, चौथे, आठवें या बारहवें घर में हों; जब ग्रहयुद्ध हो; जब वसन हथियार, घोड़े, गायें, रत्न एवं केश लुप्त हो जायें; जब रात्रि में सामने इन्द्रधनुष दीख पड़े; जब घर की थून (स्तम्भ या स्थाणु) टूट जाय; जब खच्चरी को गर्भ रह जाय; जब ग्रहण हो तो महाशान्ति की जानी चाहिए स्थान-संकोच से इसकी विधि (प्रयोग) का वर्णन यहां नहीं किया जायगा। विशेष वर्णन के लिए देखिए भविष्या तर० (१४३।२-४६)।
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