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षष्टयब्द-पूर्ति शान्ति (हीरक जयन्ती)
३५७ घोड़ा, पीत अन्न, पीत वसन, नमक, सोना; शुक्र के लिए : कतिपय रंगों के वसन, श्वेत अश्व, गाय, हीरा, सोना,.. चाँदी, लेप, चावल; शनि के लिए : इन्द्रनील (नीलम), माष, तिल, तिल का तेल, कुलित्थ (कुल्थी) की दाल, मैंस, लोहा, काली गाय; राहु के लिए : गोमेद, घोड़ा, नीला वसन, कम्बल, तिल का तैल, लोहा; केतु के लिए : लहसुनिया रत्न, तिल एवं तिल का तेल, कम्बल, कस्तूरी, मेमना, वसन।
शान्तियों की संख्या-सूची बहुत लम्बी है। उनका सम्पादन प्राकृतिक घटनाओं, यथा ग्रहणों, भूचालों, असामान्य वर्षाओं, अन्धड़-तूफानों, उल्कापातों, धूमकेतुओं, मण्डलों के लिए होता है; ग्रहों की गतियों एवं स्थितियों के अशुभ प्रभावों से रक्षा करने के लिए होता है; मानवों एवं पशुओं के विचित्र जन्मों पर होता है; घोड़ों एवं हाथियों की अच्छाई के लिए होता है; कुछ प्रतिकूल घटनाओं, यथा मूर्तियों के हँसने, रोने, गाने, गिरने, पशु-पक्षियों की बोलियों, शरीर पर छिपकली, गिरगिट के गिरने तथा कुछ पवित्र अवसरों पर होता है।
शान्ति-कृत्य, पौष्टिक कृत्य एवं महादान आदि साधारण अग्नि में ही किये जाते हैं। देखिए शान्तिमयूख (पृ० ४)। मनु० (३।६७) एवं याज्ञ० (११९७) ने गृह्यसूत्रों में प्रतिपादित धार्मिक कृत्यों का ही उल्लेख किया है। मिताक्षरा (याज्ञ० ११२८५-८६) ने विनायकशान्ति में साधारण (गृह की) अग्नि की ही व्यवस्था दी है।
मनु (४।१५०) एवं विष्णुधर्मसूत्र (७११८६) में प्रतिपादित है कि सूर्य के लिए होम एवं शान्तिहोम गृहस्थ द्वारा पर्वो (अर्थात् पूर्णमासी एवं अमावस्या) पर होना चाहिए। ये शान्तियाँ निश्चित कालों में होती थीं। इसी प्रकार जब भी किसी जाति का, कोई स्त्री या पुरुष ६० वर्ष पूरा कर लेता था, तो यह सम्भव माना जाता था कि वह शीघ्र ही मर जायगा, या उसकी माता या पिता या पत्नी या पुत्र मर सकते हैं, या भाँति-भाँति के रोगों से वह ग्रसित हो सकता है ; इस प्रकार के भय को दूर करने के लिए एक शान्ति व्यवस्थित थी (आज भी यह की जाती है) जिससे वह लम्बी आयु पा सके, सभी प्रकार की विपत्तियों से मुक्त रहे और उसे पूर्ण समृद्धि प्राप्त हो। इस शान्ति को षष्ट पदपूर्ति या उपरथशान्ति कहा जाता है।
उग्ररथशान्ति के विषय में प्राचीनतम उल्लेख बोधायनगृह्यसूत्र (५।८) में पाया जाता है। इसका सम्पादन जन्म के मास एवं उसके नक्षत्र में होता है। जन्म के दिन पर जब व्यक्ति ६० वर्ष का हो जाता है, वह शुभ स्नान करता है, आह्निक कृत्य करता है, ब्राह्मणों को निमन्त्रित कर उनमें एक को, जो वेदज्ञ होता है, वेदांगों को जानता है और सुचरित्रवान् होता है, चुनता है। सर्वप्रथम गणेश-पूजा की जाती है, उसके उपरान्त पुण्याहवाचन होता है, मातृ-पूजा की जाती है और तब नान्दीश्राद्ध किया जाता है। व्यक्ति को सर्वोषधियां लानी होती हैं, पाँच वृक्षों की शाखाएँ एवं पत्तियाँ, पाँच रत्न, पंचगव्य एवं पंचामृत एकत्र करना होता है। इसके उपरान्त नवग्रह-पूजा की जाती है। एक या या पल की मार्कण्डेय-प्रतिमा बनायी जाती है जिसे दो वसनों से आच्छादित जलपूर्ण पा जाता है, इसके उपरान्त १६ उपचार कर मार्कण्डेय को १००८ या १०८ या २८ या ८ इन्धनाहुतियाँ दी जाती हैं तथा पका हुआ चावल, घृत, दूर्वा एवं सुन्दर पात्र मन्त्रों के साथ दिये जाते हैं। इसके उपरान्त कृत्यकर्ता दूर्वा एवं १०००० या ५००० या ३००० या १००० तिलाहुतियों के साथ मृत्युंजय (शिव) के सम्मान में होम करता है। इसके उपरान्त वह पृथक् रूप से चिरंजीवी रूपों की पूजा करता है, यथा अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृप एवं परशुराम की पूजा। इसके उपरान्त वह अपनी समर्थता के अनुसार भुने चने का होम करता है और
___९. सावित्राञ् शान्तिहोमांश्च फुर्यात्पर्वसु नित्यशः। मनु (४१५०); पर्वसु शान्तिहोमं कुर्यात् । वि० ध० सू० (७११८६)।
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