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________________ ३५६ धर्मशास्त्र का इतिहास वैखानस स्मा० सू० (४।१३) ने नव-ग्रहों के लिए कुछ विभिन्न नैवेद्य भोजन दी व्यवस्था दी है। मत्स्य. ने अयुतहोम के वर्णन के अन्त में कहा है-'जिस प्रकार बाणों से रक्षा के लिए कवच होता है उसी प्रकार शान्ति (ग्रह-यज्ञ) देवोपघातों से रक्षा करती है।" ___मत्स्य० (९३।९२) में ऐसी घोषणा है कि लक्षहोम की आहुतियों एवं दक्षिणाओं में अयुतहोम का दसगुना तथा कोटिहोम लक्षहोम का सौगुना है तथा यही प्रकार ग्रहों एवं उनके देवों के आवाहन एवं विसर्जन में होममंत्रों, स्नान एवं दान के विषय में भी है। मत्स्य० (९३।१११-११२) में एक विज्ञप्ति है कि अन्नहीन यज्ञ राष्ट्र को जला देता है (अर्थात् राष्ट्र पर विपत्ति आती है ), मन्त्रहीन यज्ञ से ऋत्विज जल जाता है, दक्षिणाहीन यज्ञ यजमान को जला देता है; यज्ञ के समान कोई शत्रु नहीं है। अतः दरिद्र व्यक्ति को लक्षहोम कभी नहीं करना चाहिए। क्योंकि यज्ञ में (भोजन एवं दक्षिणा-सम्बन्धी) विग्रह (यजमान पर) सदा विपत्ति ढाता है। देखिए बृहद्योगयात्रा (१८३१-२४), योगयात्रा (अध्याय ६)। याज्ञ० में ग्रहयज्ञ सरल एवं संक्षेप में है, किन्तु पुराणों, निबन्धों एवं आधुनिक ग्रन्थों में यह बहुत बोझिल हो गया है। दो-एक बातें यहाँ दी जा रही हैं। प्रत्येक ग्रह को गोत्र दे दिया गया है और उसके जन्म के लिए देश निर्धारित कर दिया गया है। अतः प्रत्येक ग्रह के आवाहन में इन दो बातों को जोड़ दिया जाता है। सूर्य से केतु तक गोत्र क्रम से यों है-काश्यप, आत्रेय, भारद्वाज, आत्रेय, आंगिरस, मार्गव, काश्यप, पैठीनसि एवं जैमिनि। और देखिए रघुनन्दनकृत संस्कारतत्त्व (पृ० ९४६), जहाँ पर यह उल्लेख है कि यदि ग्रह-पूजा बिना गोत्रों एवं देशनामों के की जायगी तो वह ग्रहों के लिए अनादर की सूचक होगी। शान्तिमयूख (पृ० १२) जैसे कुछ मध्यकालिक ग्रन्थों ने स्कन्दपुराण के पद्यों को उद्धृत करते हुए कहा है कि शनि की प्रतिकूल दृष्टि के कारण सौदास को मानुष मांस खाना पड़ा, राहु के कारण नल को पृथ्वी पर घूमना पड़ा, मंगल के कारण राम को वनगमन करना पड़ा , चन्द्र के कारण हिरण्यकशिपु की मृत्यु हुई, सूर्य के कारण रावण का पतन हुआ, बृहस्पति के कारण दुर्योधन की मृत्यु हुई, बुध के कारण पाण्डवों को उनके अयोग्य कर्म करना पड़ा तथा शुक्र के कारण हिरण्याक्ष को युद्ध में मरना पड़ा। __ कुछ निबन्धों में अशुभ ग्रहों के लिए विशिष्ट दानों की चर्चा हुई है। यहां हम धर्मसिन्धु (पृ० १३५) से कुछ उदाहरण दे रहे हैं। सूर्य के लिए : लाल मणि, गेहूँ, गाय, लाल वसन, गुड़, सोना, ताम्र, लाल चन्दन, कमल; चन्द्र के लिए : बाँस के बने पात्र में चावल, कपूर, मोती, श्वेत वसन, घृतपूर्ण घड़ा, बैल; मंगल के लिए : प्रवाल (मूंगा), गेई, मसूर दाल, लाल बैल, गुड़, सोना, लाल वसन, ताम्र ; वुध के लिए : पीला वसन, सोना, पीतल का पात्र, मुद्ग (मूंग) दाल, मरकतमणि (पन्ना), दासी , हाथीदांत, पुष्प; बृहस्पति के लिए : पुष्पराग (पोखराज), हल्दी, शक्कर, ७. यथा बाणप्रहाराणां कवचं भवति वारणम् । तद्वद् दैवोपघातानां शान्तिर्भवति वारणम् ॥ मत्स्य० (९३३८१), विष्णुधर्मोत्तर (१३१०५।१४)। मत्स्य० (२२८।२९) में पुनः आया है : 'बाणप्रहारा न भवन्ति यद्वत् राजन्नृणां सनहनैर्युतानाम् । देवोपघाता न भवन्ति तद्वसर्मात्मनां शान्तिपरायणानाम् ॥' ८. अंगेषु सूर्यो यवनेषु चन्द्रो भौमो ह्यवन्त्यां मगधेषु सौम्यः। सिन्धौ गुरुर्भोजकटेषु शुक्रः सौरः सुराष्ट्र विषये बभूव ॥ म्लेच्छेषु केतुश्च तमः कलिंगे जातो यतोऽतः परिपीडितास्ते। स्वजन्मदेशान्परिपीडयन्ति ततोभियोज्याः क्षितिपेन देशाः॥ योगयात्रा (३३१९-२०)। मिलाइए सारावली (७.१४-१५) जहाँ शुक्र को समतट में तथा राहू एवं केतु दोनों को द्रविड़ में जनमे कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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