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________________ ३५४ धर्मशास्त्र का इतिहास याज्ञवल्क्य (१।२९४) का कथन है-'जो श्री-प्राप्ति की कामना करने वाला है, सभी विपत्तियों को दूर करना चाहता है, (कृषि के लिए) वर्षा की कामना करता है, लम्बी आयु चाहता है, स्वास्थ्य चाहता है और शत्रुओं के निवारण के लिए इन्द्रजाल (जादू) कृत्य करने का इच्छुक है, उसे ग्रह-यज्ञ सम्पादित करना चाहिए।' मत्स्य० (९३।५-६) के अनुसार नवग्रहमख तीन प्रकार का है--(१) अयुतहोम (जिसमें १०००० आहुति होती हैं), लक्षहोम एवं कोटिहोम। अयुतहोम का सम्पादन विवाहों, उत्सवों, यज्ञों, मूर्तिप्रतिष्ठापनों एवं अन्य कर्मों में होता है, जिससे उनमें कोई बाधा न उपस्थित हो; इसका सम्पादन उन अवसरों पर भी होता है जब कि मन उद्विग्न होता है या जब कोई अशुभ शकुन या असामान्य घटना घटती है।' याज्ञवल्क्यस्मृति में जो विधि है, वह संक्षेप में है और ग्रहयज्ञ-सम्बन्धी ग्रन्थों में सबसे प्राचीन है। हम मत्स्य० एवं वैखानस० से कुछ लेकर उस विधि को उपस्थित करते हैं। क्रम से ताम्र, स्फटिक, लाल चन्दन, सोना (बुध एवं बृहस्पति दोनों के लिए), चाँदी, लोहा, सीसा, पीतल या (यदि ये सब उपलब्ध न हों) तो किसी वस्त्र-खण्ड पर ग्रहों के अनुरूप रंगों के चूर्ण से चित्रों या (चन्दन जैसे सुगंधित लेप से) वृत्तों द्वारा नव-ग्रहों की आकृतियाँ बना लेनी चाहिए। मत्स्य० (९३।११-१२) ने व्यवस्था दी है कि आकृतियों के चित्रांकन में सूर्य मध्य में होना चाहिए, मंगल, बृहस्पति, बुध, शुक्र, चन्द्र, शनि, राहु एवं केतु की आकृतियाँ चावल-अन्नों से क्रम से दक्षिण, उत्तर, उत्तर-पूर्व, पूर्व, दक्षिण-पूर्व, पश्चिम, उत्तर-पश्चिम में प्रतिष्ठापित (अंकित होनी चाहिए। याज्ञ० (१२९८) में व्यवस्था है कि पुष्पों, सुगंधित पदार्थों के रंग ग्रहों के उपयुक्त वस्त्रों, होने चाहिए, हवि दी जानी चाहिए, सभी ग्रहों के लिए गुग्गुल की धूप देनी चाहिए तथा पके चावल की आहुतियाँ मन्त्रों के साथ क्रम से नव-ग्रहों को दी जानी चाहिए। ४. विवाहोत्सवयज्ञेषु प्रतिष्ठादिषु कर्मसु। निर्विघ्नार्थ मुनिश्रेष्ठ तथोद्वेगाद्भुतेषु च ॥ कथितोऽयुतहोमोऽयं लक्षहोममतः शृणु ॥ मत्स्य० (९३३८४), भविष्य० (४।१४११८६-८७) । टिप्पणियों से अभिव्यक्त है कि याज्ञ० एवं मत्स्य० में बहुत-से पद्य एक ही हैं और मत्स्य० में अपेक्षाकृत अधिक विस्तार है। यह सम्भव है कि तीनों में याज्ञ० सबसे प्राचीन है, वै० याज्ञ० एवं वै० स्मा० सू० से स्मा० सू० उसके उपरान्त तथा मत्स्य० तीनों के उपरान्त लिखित हुआ है। ५. मत्स्य० (९३।११-१२) को मिताक्षरा ने याज्ञ० (१२२९७) एवं वै० स्मा० सू० (४।१३) की टीका में उद्धृत किया है : 'मध्याग्नेयदक्षिणेशान्योत्तरपूर्वपश्चिमनैऋतवायव्याश्रिताः।' जो क्रम से सूर्य (मध्य में), चन्द्र (आग्नेय अर्थात् दक्षिण-पूर्व में), मंगल (दक्षिण में), बुध (ऐशान अर्थात् उत्तर-पूर्व में), बृहस्पति (उत्तर में), शुक्र (पूर्व में), शनि (पश्चिम में), राहु (नैर्ऋत अर्थात् दक्षिण-पश्चिम में) एवं केतु (वायव्य अर्थात् उत्तर-पश्चिम में) को दिशाओं का द्योतक है। ६. नवग्रहों एवं उनके देवों के अनुरूप रंगों का उल्लेख वै० स्मा० सू० में इस प्रकार है : रक्तसितातिरक्तश्यामपीतसितासितकृष्णधूम्रवर्णाः। अनलाप्पलिगुहहरीन्द्रशचीप्रजापतिशेषयमाधिदेवत्याः॥ मत्स्य० में कुछ अन्तर है; वहाँ (९३।१६-१७) रंग इस प्रकार हैं : सूर्य एवं मंगल के लिए लाल, चन्द्र एवं शुक्र के लिए श्वेत, बुध एवं बृहस्पति के लिए पीत, शनि एवं राहु के लिए काला तथा केतु के लिए धूम वर्ण । मत्स्य० (९३।१३-१४) के अनुसार ग्रहों के अधिदेव हैं : शिव, उमा, स्कन्द, हरि, ब्रह्मा, इन्द्र, यम, काल एवं चित्रगुप्त (क्रम से सूर्य, चन्द्र आदि के लिए)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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