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अध्याय २१ कतिपय विशिष्ट शान्तियाँ
अब हम कुछ विशिष्ट शान्तियों का उल्लेख करेंगे। इनमें अधिकांश वैदिक काल के पश्चात् की हैं। पहली है विनायक-शान्ति या गणपति-पूजा। यह उपनयन एवं विवाह जैसे संस्कारों के आरम्भ में की जाती है, जिससे कि निर्विघ्न फल की प्राप्ति हो, उत्पातों के अशुभ प्रभाव दूरहों या सपिण्ड की मृत्यु से उत्पन्न प्रतिकूल परिणामों का निवारण हो सके। इसका स्वतन्त्र रूप से सम्पादन शुक्ल पक्ष की चतुर्थी या बृहस्पति या पुष्य, श्रवण, उत्तरा, रोहिणी, हस्त, अश्विनी, मृगशीर्ष शुभ नक्षत्रों में होता है। किन्तु जब इसका सम्पादन उपनयन जैसे संस्कारों के आरम्भ में किया जाता है तब उस प्रमुख कृत्य का काल ही इसके लिए उपयुक्त माना जाता है। इसका संकल्प धर्मसिन्धु (पृ० २०५) में दिया हुआ है। मानवगृह्य एवं बैजवापगृह्य में चार विनायकों (सभी दुष्ट आत्माओं के रूप में) का उल्लेख है, किन्तु आगे चलकर याज्ञ० (११२७१-२९४) में विनायक न-केवल विघ्नकर्ता माना गया है, प्रत्युत विघ्नहर्ता भी कहा गया है, किन्तु और आगे चलकर गणपति-पूजा को प्रत्येक कृत्य के लिए अनिवार्य ठहराया गया है (गोभिल १११३) । याज्ञ० (१।२९३) में आया है कि विनायक की प्रतिपादित पूजा तथा ग्रह-पूजा से सर्वोत्तम फल एवं श्री की प्राप्ति होती है। और देखिए विष्णुधर्मोत्तर (२।१०५।२-२४)। ब्रह्माण्ड० में आया है कि गर्भाधान से लेकर जातकर्म आदि संस्कारों, यात्रा, वाणिज्य, युद्ध-काल, देव-पूजा, संकट में तथा इच्छाओं की सिद्धि में गजानन की पूजा अवश्य की जानी चाहिए। भविष्य० (अध्याय १४४) की गणनाथशान्ति याज्ञवल्क्य की विनायकशान्ति से मिलती जुलती है।।
याज्ञवल्क्य (१-२९४-३०८), वैखानसस्मार्त-सूत्र (४।१३-१४), बौधायनगृह्यशेषसूत्र, मत्स्यपुराण (९३।१-१०५), विष्णुधर्मोत्तर (११९३-१०५) एवं अन्य पुराणों, बृहद्योगयात्रा (१८११-२४) एवं मध्यकालिक निबन्धों में नवग्रहों (सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि,राहु एवं केतु) के शान्ति-कृत्य की व्यवस्था है। यह नवग्रहशान्ति निबन्धों में वर्णित शान्ति-होमों का नमूना (प्रकृति) है। वैखानसस्मार्तसूत्र (४।१४) में आया है कि सभी धार्मिक कृत्यों के आरम्भ में नवग्रहशान्ति का सम्पादन होना चाहिए।'
१. एवं विनायकं पूज्य ग्रहांश्चैव विधानतः। कर्मणां फलमाप्नोति श्रियं चाप्नोत्यनुत्तमाम् ॥ याज्ञ० (१२९३), भविष्य (ब्राह्मपर्व, २३।३०)।
२. जातकर्मादिसंस्कारे गर्भाधानाविकेपि च । यात्रायां च वणिज्यादौ युद्धे देवार्चने शुभे॥ संकष्टे कामसिद्धयर्थ पूजयेद्यो गजाननम्। तस्य सर्वाणि कार्याणि सिध्यन्त्येव न संशयः॥ ब्रह्माण्ड० (३॥४२॥४४); ब्रह्माण्ड० (४।४४। ६५-७०) ने गणेश के ५१ नाम दिये हैं।
३. ग्रहपूजां पुरस्कृत्य सर्वकर्म समारभेविति विज्ञायते। वै० स्मा० सू० (४।१४); शान्तिकमलाकर में आया है : 'अयं सर्वशान्तिप्रकृतिस्तु ग्रहयज्ञ उच्यते। तत्र स्कान्दयाज्ञवल्क्यौ श्रीकामः शान्तिकामो वा...।'
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