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________________ दिव्य, आन्तरिक्ष, भौम उत्पातों की विविध शान्तियाँ ३५१ गर्ग, पराशर, सभापर्व, बृहत्संहिता (४५।२), मत्स्य० (२२९।५), अथर्व-परिशिष्ट (६९।११२) आदि ने उत्पातों को तीन भागों में बाँटा है--दिव्य (स्वर्गिक वस्तुओं से उठने वाले), आन्तरिक्ष (आकाश में उभरने वाले) एवं भौम (पृथिवी में प्रकट होने वाले)। यह विभाजन प्राचीन है (अथर्व० १९।९।७) । गर्ग एवं बु० सं०, मत्स्य० (२२९।६-९), अग्नि० (२६३।१२-१३) में तीनों प्रकार के उत्पातों का उल्लेख है। दिव्य उत्पात हैं—ग्रहों, नक्षत्रों, ग्रहणों एवं धूमकेतुओं की असामान्य दशाएँ; आंतरिक्ष उत्पात हैं-अन्धड़, तूफान, असामान्य घन-खण्ड, उल्कापात, सन्धाएँ, दिशाओं का अद्भुत लालिमायुक्त प्रकट होना, मण्डल, वायु में भ्रमात्मक आकृति प्रकट हो जाना, इन्द्रधनुष एवं अद्भुत वर्षा (यथा रक्तिम जल, मछलियों की वर्षा, कछुओं की वर्षा आदि); भौम उत्पात ये हैं--भूचाल, तालाबों की असामान्य स्थिति । बृ० सं० में आया है कि भौम उत्पात शान्तियों से दूर किये जाते हैं, आंतरिक्ष उत्पात शान्तियों से कुछ कम (मृदु) हो जाते हैं, किन्तु दिव्य उत्पात शान्तियों से नहीं दूर होते (जैसा कि उत्पल के मत से काश्यप ने कहा है, किन्तु वराहमिहिर के अनुसार अधिक सोना, भोजन, गाय एवं भूमि के दानों, पृथिवी पर गाय का दूध शिव पर (रुद्र के मन्दिर में) चढ़ाने एवं कोटिहोम करने से दिव्य उत्पात दूर किये जा सकते हैं। वराहमिहिर एवं मत्स्य० के अनुसार दिव्य उत्पात आठ प्रकार से बुरा फल देते हैं स्वयं राजा पर, उसके पुत्र, कोश, वाहनों, राजधानी, रानी, पुरोहित एवं प्रजा पर। विभिन्न नामों वाली शान्तियों के नाम मत्स्य०, वराहमिहिर आदि द्वारा उल्लिखित हैं। मत्स्य० में वर्णित १८ शान्तियां संक्षेप में यों हैं-- अभय शान्ति तब की जाती है जब राजा विजयी होना चाहता है या जब उस पर आक्रमण होता है, या जब उसे भय होता है कि उस पर माया की गयी है या जब वह शत्रुओं का नाश करना चाहता है या जब उस पर बड़ा भय आ जाता है। सौम्य शान्ति तब की जाती है जब राजरोग (टी० बी०) हो जाता है, घावों से दुर्बल होने पर या यज्ञ करने की इच्छा होने पर। वैष्णवी शान्ति की व्यवस्था भूचाल में, दुर्भिक्ष में, अति वृष्टि में, अनावृष्टि में, टिड्डियों के भय में तथा चोरों की क्रिया होने में होती है। रौद्री शान्ति का प्रयोग पशुओं एवं मानबों में महामारी उत्पन्न हो जाने पर या भूत-प्रेत के प्रकट होने पर या राज्याभिषेक में या आक्रमण होने पर या जब राज्य में कोई विश्वासघात होता है या जब शत्रु -हनन होता है, तब की जाती है। ब्राह्मी शान्ति की व्यवस्था तब की जाती है जब वेदाध्ययन के नष्ट होने का डर रहता है या जब नास्तिकता फैलने लगती है या जब कुपात्रों को सम्मान मिलने लगता है। जब अन्धड़-तूफान तीन दिनों तक चलते रहते हैं और वात से रोग फैलने लगते हैं तब वायवी शान्ति की व्यवस्था होती है। वारुणी शान्ति अनावृष्टि में या जब असामान्य वर्षा (रक्त-जल की वर्षा आदि) होने लगती है तब की आती है। प्राजापत्य शान्ति असामान्य जनन में की जाती है। स्वाष्ट्री शान्ति हथियारों की असामान्य दशाओं में की जाती है। कौमारी शान्ति की व्यवस्था बच्चों के लिए होती है। आग्नेयी शान्ति अग्नि के अद्भुत रूपों में की जाती है। गान्धर्वो शान्ति आज्ञोल्लंघन में, पत्नी एवं मृत्यों के नाश में या अश्वों के लिए की जाती है। आंगिरसी शान्ति हाथियों के विकृत होने पर की जाती है। नैर्ऋती शान्ति पिशाचों के भय में की जाती है। याम्या शान्ति की व्यवस्था मृत्यु या दुःस्वप्न की घटनाओं में होती है। कौबेरी शान्ति धन की हानि में की जाती है। जब वृक्षों की असामान्य दशाएँ आती हैं तो पार्थिवी शान्ति की व्यवस्था होती है। ज्येष्ठा या अनुराधा नक्षत्र में उत्पात होते हैं तो ऐन्द्री शान्ति की जाती है। १०. आत्मसुतकोशवाहनपुरदारपुरोहितेषु लोके च। पाकमुपैति देवं परिकल्पित मष्टधानृपतेः॥ बृ० सं० (४५७), मत्स्य० (२२९।१२-१३)। www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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