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धर्मशास्त्र का इतिहास श्रोत या गृह्मसूत्रों में उत्पात' शब्द विरल ही प्रयुक्त है। गौतमधर्मसूत्र (११।१२-१३, १५-१६) ने राजा को आदेश देते हुए कि उसे विद्वान्, शीलवान् ब्राह्मण को पुरोहित बनाना चाहिए, यह व्यवस्था दी है कि उसे जो ज्योतिषी एवं शकुन-व्याख्या करने वाले करने को कहें उस पर ध्यान देना चाहिए और पुरोहित को चाहिए कि वह शान्तिकृत्य करे (यथा वास्तु-होम) तथा इन्द्रजाल (जादू) कृत्य (राजा की ओर से) करे। किन्तु पुराणों एवं मध्यकालिक संस्कृत ग्रन्थों में उत्पात शब्द अद्भुत शब्द की अपेक्षा अधिक प्रयुक्त हुआ है, कभी-कभी दोनों समानार्थक रूप में प्रयुक्त हुए हैं। गर्ग का कथन है-'देवता मनुष्यों के दुष्कर्मों से अशुभकर हो जाते हैं और आकाश, अन्तरिक्ष एवं भूमि में अद्भुत (असाधारण घटनाएँ) उत्पन्न करते हैं। ये सभी लोकों के लिए देवों द्वारा उत्पन्न उत्पात हैं; ये उत्पात सब लोगों के नाश के लिए प्रकट होते हैं और अपने भयानक रूपों द्वारा लोगों को (अच्छा कार्य करने के लिए) प्रेरित करते हैं।' यहाँ अद्भुत एवं उत्यात शब्द एक दूसरे के पर्याय हैं। और देखिए मत्स्यपुराण (२२८।१-२)। सामान्यतः, उत्पात वे घटनाएँ हैं जो सब के लिए भयानक होती हैं। अमरकोश ने 'अजन्य', 'उत्पात' एवं 'उपसर्ग' को समानार्थक कहा है। गर्ग, वराहमिहिर एवं अथर्व-परिशिष्ट ने उत्पात को स्वाभाविक क्रम (स्थिति) का उलटा (विलोम) माना है। अमरकोश के अनुसार निमित्त का अर्थ है 'कारण या अग्रसूचक चिह्न।' निमित्त शुभ एवं अशुभ दोनों हो सकता है, यही उत्पात (जो सामान्यतः अशुभ होता है) एवं निमित्त का अन्तर है। एक अन्य अन्तर भी है। निमित्त बहुधा व्यक्ति के अंगों के फड़कने तक सीमित है (मत्स्य० अध्याय २४१), किन्तु कहीं-कहीं व्यापक अर्थ में भी इसका प्रयोग हुआ है (निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव, गीता १३१)। देखिए रामायण (अयोध्या० ४।१७-१९), भीष्म० (२।१६-१७), विराट० (४६।३०) । मनु (६।५०) ने 'उत्पात' एवं 'निमित्त' में भेद किया है।
महाभारत में अशुभ घटनाओं (निमित्तों या उत्पातों) का बहुत उल्लेख हुआ है, यथा सभा पर्व (८०।२८-३१ ८११२२-२५), वन० (१७९।४१, २२४।१७-१८), विराट (३९।४-६) आदि। प्रमुख उत्पात एवं अद्भुत ये हैंभयंकर स्वप्न ; अन्धड़-तूफान (निर्घात); उल्कापात; दक्षिण में शृगालिन का रोना; बालू के कणों के साथ भयंकर एवं सूखी आँधी; भूचाल; असामान्य काल में सूर्य-ग्रहण ; बिना बादलों के विद्युत-चमक ; मन्दिरों पर गृद्ध, कौओं का वास; दुर्ग की दीवारों एवं प्राकारों पर भी उनका वास; अचानक अग्नि; फटे झंडे या पताकाएँ; सूर्य-चन्द्र का मण्डल ; नदियों में रक्त-जल-प्रवाह; बिना बादलों की वर्षा; रक्त या पंक की वर्षा ; हाथियों की चिंघाड़; अन्धकारयुक्त आकाश; घोड़ों का अश्रु-प्रवाह; स्वच्छ आकाश में बादल-गर्जन; नदियों का उलटा प्रवाह; बायें हाथ एवं आँख का फड़कना; मेढक की टर्र-टर्र; समुद्र का तूफान; मूर्तियों का काँपना, नाचना, हँसना एवं रोना; पीला सूर्य ; सूर्याभिमुख हो कपोत, मैना एवं हरिण का रुदन, सूर्य के पास मुण्डरहित धड़ों का प्रकट होना; विचित्र जन्म, यथा गाय से गदहा, नेवले से चूहा (युद्धकाण्ड ३५।३०)। इन ग्रन्थों में शुभ चिह्न बहुत कम वर्णित हैं (बालकाण्ड २२।४, उद्योग० ८३।२३-२६, ८४।११७, भीष्म० ३।६५-७४, शान्ति० ५२।२५, आश्वमेधिक० ५३।५-६) । प्रमुख शुभ लक्षण ये हैं-बिना बादलों के स्वच्छ गगन ; शीतल एवं स्पर्श से आनन्द देने वाली वायु का प्रवाह; धूल का न उड़ना, मनुष्य की दाहिनी ओर पक्षियों एवं पशुओं का जाना; घूमरहित अग्नि, जिसकी ज्वाला दाहिनी ओर हो; पुष्पवर्षा, चाष, कौंच, मोर जैसे शुभ पक्षियों का दाहिनी ओर चहचहाना (कर्ण० ७२।१२-१३) ।
९. ब्राह्मणं च पुरोदधीत विद्याभिजनवाग्रूपवयःशीलसम्पन्नं न्यायवृत्तं तपस्विनम्। तत्प्रसूतः कर्माणि कुर्वीत।.....'यानि च देवोत्पातचिन्तकाः प्रयुस्तान्याद्रियेत। तवधीनमपि होके योगक्षेमं प्रतिजानते। गौ० घ० सू० (११३१२-१३, १५-१६)।
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