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शान्ति विधान
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४६।२) के पाठ से सभी स्वप्न नष्ट हो जाते हैं। दो पद्य इस प्रकार हैं- 'हे स्वप्न, हम तुम्हारी जन्मभूमि जानते हैं, तुम देवों की बहिनों के पुत्र हो, तुम यम के सहायक हो; तुम अन्तक हो, तुम मृत्यु हो; हे स्वप्न, हम तुम्हें वैसा समझते हैं; हे स्वप्न, तुम हमें दुःस्वप्नों से बचाओ; मैं दु:स्वप्न देखने पर घूम जाता ( करवट बदल लेता हूँ, ऐसा ही बुरे भाग्य में भी करता हूँ, मैं ब्रह्म (वैदिक प्रार्थना) को अपनी सुरक्षा बनाता हूँ, मैं स्वप्नों से आगत दुश्चिन्ताओं को भी भगाता हूँ ।' और देखिए कात्यायनश्रौतसूत्र ( २५।११।२० ) ।
आपस्तम्बगृ० (८|२३।९) ने कतिपय असाधारण दृश्यों के लिए एक ही प्रकार की शान्ति की व्यवस्था दी है -- स्थणाविरोहण ( घर के खम्भे अर्थात् न्ही में अंकुर निकलने) में, घर पर मधुमक्खी का छत्ता होने पर, यदि चूल्हे पर कपोत पदचिह्न दीख पड़े या घर में रोग उत्पन्न हो जाय या अन्य अद्भुत उत्पात प्रकट हो जायें तो अमावस्या की अर्धरात्रि में, जहाँ जल-शब्द न सुनाई पड़े, व्यक्ति को अग्नि में समिधा डालने से लेकर आज्य भाग की आहुतियों के कृत्य करने चाहिए, तदनन्तर जप एवं आहुतियाँ देनी चाहिए। इसी प्रकार सामविधान ब्राह्मण में भी उत्पातों पर शान्ति की व्यवस्था है (५।२-३, ५।७।२ आदि) । अथर्व ० ( १९/९/९) में उल्कापात (नक्षत्रमुत्काभिहतं शमस्तु नः ), षड्विंश० (५/९/२ ) में भी उल्कापात तथा ( ५।१०।२ ) में मूर्ति के हँसने, रोने आदि की ओर संकेत है। स्थानाभाव से गृह्यसूत्रों में वर्णित शान्तियों का और उल्लेख नहीं किया जायगा ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि वैदिक साहित्य, श्रौतसूत्रों, सामविधान - ब्राह्मण एवं ऋग्विधान में शान्तियों का प्रयोग न केवल क्रुद्ध देवों या शक्तियों को प्रसन्न करने के लिए प्रत्युत कुस्वप्न जैसी घटनाओं तथा सूर्य-चन्द्र-रूपों, अशुभ पक्षियों की बोलियों आदि के लिए भी होता था ।
सभी प्रकार के शकुनों एवं उत्पातों की शान्तियों के विषय में पश्चात्कालीन वैदिक साहित्य में विशद विवेचन पाया जाता है। गृह्यसूत्रों, कौशिकसूत्र, अथर्व परिशिष्टों, पुराणों, बृहत्संहिता ( अध्याय ४४), कृत्यकल्पतरु (शान्तिक-पौष्टिक-काण्ड), बल्लालसेन एवं उनके पुत्र लक्ष्मणसेन के अद्भुतसागर, मदनरत्न ( शान्तिखण्ड), रघुनन्दन के ज्योतिस्तत्त्व, कमलाकर भट्ट के शान्तिकमलाकर एवं नीलकण्ठ के शान्तिमयूख में शान्ति-विषयक विशद चर्चाएँ पायी जाती हैं। इनमें अद्भुतसागर एक विशाल ग्रन्थ ( ७५१ पृष्ठों में ) है । बहुत-से शान्ति कृत्य अब प्रयोग में नहीं लाये जाते । हम यहाँ संक्षेप में कुछ ही शान्तियों का उल्लेख करेंगे।
कौशिकसूत्र (अध्याय १३, कण्डिका ९३ १३६ ) में अद्भुतों एवं उनकी शान्तियों का उल्लेख है । ९३ वीं कण्डिका में ४२ औपसर्गिक उत्पातों का उल्लेख है, अन्य कण्डिकाओं में कुशकुनों या उत्पातों तथा प्रत्येक की शान्ति का वर्णन है । इन शान्तियों में अथर्ववेद के मन्त्र गौण महत्त्व रखते हैं, अधिकांश मन्त्र स्वतन्त्र रूप से आये हैं। यह द्रष्टव्य है कि बाद में ये शान्तियाँ प्रायश्चित्त के नाम से पुकारी गयी हैं।
मदनरत्न (लगभग १४२५ से १४५० ई० ) में वर्णित शान्तिक- पौष्टिक विषय यह प्रकट करते हैं कि मध्यकाल में शान्तियों का बड़ा महत्त्व था । इसकी अप्रकाशित पाण्डुलिपि की अनुक्रमणिका में निम्न वर्णन हैविनायकस्तान; सूर्य से केतु तक नवग्रहों को प्रसन्न करने की शान्तियाँ; शनैश्चरव्रत शनि को प्रसन्न करने की शान्तियाँ (स्कन्द पुराण के नागरखण्ड एवं प्रभासखण्ड से उद्धरण लिये गये हैं) ; बृहस्पति एवं शुक्र की पूजा; पाँच या अधिक ग्रहों के योग पर यामलों पर आधारित शान्तियाँ विष्णुधर्मोत्तर० से उद्धृत ग्रहस्तान; ज्वर या अन्य
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७. यामल तन्त्र कोटि के ग्रन्थ हैं, जिनकी संख्या बहुत है, किन्तु बहुधा उनकी संख्या ८ कही जाती है । गणेशयामल, ब्रह्ममामल, रुद्रयामल, विष्णुयामल, शक्तियामल भादि ग्रन्थ भी हैं। स्मृतिकौस्तुभ ने कुछ तिथियों,
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