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________________ शान्ति सम्बन्धी वैदिक उल्लेख (शाखा) से अग्नि (की भयंकर ज्वाला) को शान्त किया; यही शमी का शमित्व है, इसमें शमीमय सम्भार होता है, जिससे अग्नि के जलाने से बचाव हो सके।" भाव यह है कि उत्पन्न होते ही अग्नि में भयंकर दाहकता थी जो शमी के प्रयोग से दूर की गयी; शान्ति वह कर्म या कृत्य है जो देव के क्रूर स्वरूप को प्रसन्न करता है और देव को शुभकर बनाता है। और देखिए ऐतरेय ब्राह्मण (३।२) 1 शतपथ ब्रा० (१०।२।३।३६ एवं ३७) में भी शमी की शाखा से अग्नि-ज्वाला की शान्ति का उल्लेख है, और 'शमी' को 'शम्' से व्युत्पन्न ठहराया गया है और उसे शान्ति (प्रसन्न करने) का साधन समझा गया है। ब्राह्मणों में शान्ति के कई साधनों का वर्णन है, किन्तु ये बड़े सरल हैं। कभी-कभी वेद-मन्त्र पाठ ही पर्याप्त माना गया है। तैत्तिरीय ब्रा० (१।१।८२) ने श्रौत अग्नियों को प्रज्वलित करने के समय साम-गान की व्यवस्था दी है । तीन साम हैं--रथन्तर, वामदेव्य एवं बृहत्, प्रत्येक क्रम से तीनों लोकों से सम्बन्धित है, "जब अग्नि निकाली जाती है तो वह वामदेव्य साम का गायन करता है; वामदेव्य अन्तरिक्ष है, और उसके (वामदेव्य गान) द्वारा वह अग्नि को अन्तरिक्ष में प्रतिष्ठापित करता है। वामदेव्य शान्ति है; (वामदेव्य गान पर) वह शान्त (प्रसन्न) अग्नि को, जो पशव्य (पशु प्रदायक) है, निकालता है।" और देखिए तै० सं० (३।४।२।६-७), ऐत० ब्रा० (३७।२) । सामिषेनी मन्त्रों के पाठ के पूर्व एवं पश्चात् होता जप करता है। शांखायन ब्रा० (३।३) में आया है कि सामिधेनी सदा वज्र हैं और इनके साथ जप करने से अग्नि शान्त (प्रसन्न) होती है। बुरे प्रभावों को दूर करने के लिए जल भी एक साधन रूप में घोषित है। जल शान्ति का साधन है (देखिए ऐत० ब्रा० ३२।४)। ते० आरण्यक (४।४२) ने प्रवर्दी कृत्य में ३७ शान्ति-मन्त्रों का उल्लेख किया है। वैदिक साहित्य से प्रकट होता है कि आरम्भिक काल में शान्ति का प्रयोग कई अर्थों में होता था, यथा (१) बुरे प्रभावों से दूर होने की अवस्था, (२) बुरे प्रभावों को दूर करने का साधन, जैसे जल, वैदिक मन्त्र या सूक्त एवं (३) शान्ति कृत्य। यज्ञ-सम्बन्धी बातों में देवों को प्रसन्न या शान्त करने की सरल शान्तियों के अतिरिक्त ऋग्वेद में कुछ ऐसी अशुभ घटनाओं की ओर भी संकेत मिलते हैं जिनको दूर करने के लिए उपाय बताये गये हैं। उदाहरणार्थ, ऋ० (१०।१६४।१-५) नामक ऋचा दुःस्वप्नों को दूर करने के लिए घोषित है। तीसरा मन्त्र घोषित करता है-'अग्नि उन सभी बुरे एवं अवांछित कर्मों को हमसे दूर फेंक दे (कर दे), जिन्हें हमने जागरण या स्वप्न की अवस्था में किया हो, चाहे वे इच्छाजनित रहे हों या शापित रहे हों या इच्छा के अभाव में हुए हों।' ऋग्वेद (५।८२।४-५) में आया है-'हे सविता देव, आज सन्तति से युक्त कल्याण हमारे लिए उत्पन्न करो तथा बुरे स्वप्नों के प्रभावों को भयभीत करो; हे सविता देव, सभी पापों (दुष्कृत्यों) को दूर करो तथा हमें वह दो जो शुभ हो। 'हे राजा ४. प्रजापतिरग्निमसृजत। सोऽबिभेत्त मा पश्यतीति । तं शम्याऽशमयत् । तच्छम्य शमित्वम्। यच्छमीमयः सम्भारो भवति शान्त्या अप्रवाहाय । ते बा० (१३१॥३॥२) । सायण ने व्याख्या की है : 'शमयत्यनेनेति व्युत्पत्त्या शमीति नाम सम्पन्नम् । अतस्तत्संभारः पूर्व विद्यमानस्य वाहस्योपशान्त्यै, इतः परमदाहाय च सम्पद्यते।' ५. अद्या नो देव सवितः प्रजावत् सावीः सौभगम्। परा दुःखष्वज्यं सुव । विश्वानि देव सवितरितानि परा सुव। यद् भवं तन्न आ सुव॥ ऋ० ५।८२।४-५; यो मे राजन् युज्यो वा ससा वा स्वप्ने भयं भीरवे महामाह। स्तनो वा यो विप्सति वृको वा त्वं तस्माद्धरण पाह्यस्मान् ॥१० रा२८।१०; त्रिते दुःष्वप्न्यं सर्वमाप्त्ये परि वयस्यनेहसो व ऊतयः सुऊतयो व ऊतयः॥०८५४७।१५। । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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