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________________ ३४४ धर्मशास्त्र का इतिहास प्रसन्न हों, शुभ हों और हमारे लिए सुखप्रद हों।” अथर्व ० ( १९1१०1१-१०) में 'शम्' ५१ बार आया है, वहाँ कई देवों के कल्याण के लिए प्रार्थना है और (१९।११) में एक 'शान्ति' है जिसमें 'शम्' १८ बार जाया है। देखिए वाज० सं० (३६।८-१२), जहाँ 'शम्' कई बार आया है और एक मन्त्र ( ३६।१२ ) इस प्रकार है - 'दिव्य जल हमारे लिए अभिष्ट हों, वे हमें सुख, सहायता एवं रक्षा दें, वे हमारी ओर हमारे सुख एवं कल्याण के लिए बहें ।" तै० सं० में 'शमयति' एवं 'शान्ति' का प्रयोग एक ही संदर्भ में या एक ही वचन ( वाक्य - समूह ) में हुआ है । आया है — “रुद्र देवों में क्रूर (देव) हैं,... पुरोहित जब रुद्र ( से सम्बन्धित वचन का ) पाठ करता है, तो मानो क्रूर (कर्म) करता है, 'मित्र के मार्ग में वह प्रसन्न करने के लिए कहता है ।" और देखिए ऐत० ब्रा० ( १३।१० ) । त० सं० (३|४|१०|३) में रुद्र को वास्तोष्पति कहा गया है और उन्हें प्रसन्न करने के लिए बल दिया गया है। और देखिए तै० सं० (६।३।३।२-३ ) और मिलाइए वॉज० सं० (५१४२-४३) एवं शत० ब्रा० ( ३|६|४|१३ ) जहाँ समान शब्द आये हैं । उपर्युक्त वचनों से प्रकट होता है कि 'शम्', 'शमयति' एवं 'शान्ति' शब्दों का वैदिक संहिताओं में बड़ा महत्व है । ऋ० (१।१६।७, १२७७।२, ९।१०४ | ३ ) में ' शन्तम्' शब्द अग्नि, इन्द्र, सोम ( १७६ १ ६ ३२११ ), याजक या गायक (८/१३।२२), देवों द्वारा रक्षा (५/७६११, १०/१५/४) आदि के लिए लगभग चौबीस बार आया है और उसका सामान्यतः भाव है 'शुभकर या सुख देने वाला।' इसी प्रकार 'शन्ताति' (ऋ० १।११२/२०, ८1१८1७ ) का अर्थ है 'शुभ करने वाला ।' 'शमयति' (शम् से निर्गत) एवं 'शान्ति' शब्द ऋ० में नहीं पाये जाते, किन्तु तैत्तिरीय एवं अन्य संहिताओं तथा ब्राह्मणों में उनका प्रयोग हुआ है । ऋ० में कहीं-कहीं 'शमि' शब्द आया है ( ११८७/५, २/३१६, ३।५५ ३, ८२४५।२७, १०।४०।१), जिसका अर्थ सायण के अनुसार 'कर्म' (कर्म, यज्ञ आदि) हैं । 'शमी' शब्द भी आया है (१।२० २, १।८३।४, १।११०१४, २०१९ आदि) । यहाँ भी सायण ने 'शमी' को 'कर्म' के ही अर्थ में लिया है, न कि शमी वृक्ष के अर्थ में । किन्तु एक स्थान ( ऋ० ६।३।२ ) पर 'शमी' लकड़ी या ईंधन के अर्थ में आया है । कात्यायनश्रौतसूत्र (२६।५१ : शान्तिकरणमाद्यन्तयोः ) के अनुसार वाजसनेयी संहिता का सम्पूर्ण ३६ वाँ अध्याय प्रवर्ग्यं कृत्य के आरम्भ एवं अन्त में शान्ति के रूप में प्रयुक्त होता है। यज्ञ में पशु की बलि के पूर्व होता अध्रिगु प्रैष का पाठ करता है, जिसमें 'शम्' धातु का प्रयोग है, यथा . हे अगुि, तुम्हें (पशु को ) इस प्रकार काटना या मारना चाहिए कि उसे ठीक से ले जाया जा सके' (अश्व० श्री० ३।३) । यहाँ 'शम्' धातु मार डालने के अर्थ में स्पष्ट रूप से प्रयुक्त है । यह अर्थ पूर्व लिखित अर्थों (प्रसन्न करना, बुरा प्रभाव दूर करना) से सर्वथा भिन्न है । किन्तु यह गौण अर्थ में ही प्रयुक्त है, अर्थात् यज्ञ में बलि दिये हुए पशु के अंगों को देकर देवों को प्रसन्न करना । तैत्तिरीय ब्राह्मण (१|१|३|११ ) ने शमी वृक्ष या शाखा को देवों के क्रुद्ध रूपों को शांत करने से सम्बन्धित किया है। आया है— 'प्रजापति ने अग्नि उत्पन्न की, बे डर गये 'यह अग्नि मुझे जला सकती है।' उसने शमी २. ताभिः शान्तिभिः सर्वशान्तिभिः शमयामोऽहं यदिह घोरं क्रूरं यदिह पापं तच्छान्तं तच्छिवं सर्वमेव शमस्तु नः ।। अथर्व ० ( १९।९।१४ ) । ३. शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये । शं योरभि स्रवन्तु नः ॥ वाज० सं० (३६।१२), ऋ० (१० ९४), अथर्व ० ( १|६|१), सामवेद ( ३३ ), तै० ब्रा० ( १ २०११) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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