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________________ अध्याय २० शान्ति का वैदिक अर्थ एवं विधियाँ शान्ति शब्द 'शम्' धातु से बना है, जिसके कई अर्थ हैं ( यथा बन्द करना, दूर करना, बुरा प्रभाव हटाना, मना करना, प्रसन्न होना, शमन करना या प्राण हरना) और वह चौथे एवं दसवें धातु-गण से सम्बन्धित है। यह ऋग्वेद में नहीं आया है, किन्तु अथर्व एवं वाज० सं० में प्रयुक्त हुआ है। किन्तु 'शम्' धातु एवं इसके कतिपय रूप, व्युत्पत्तियाँ तथा 'शम्' अव्यय सैकड़ों बार ऋग्वेद में आये हैं (१।९३।५, ११०६५, ३१७/३, ३।१८३५ नादि में 'यो' के साथ शम्, यथा 'शंयोः ' ; १।११४१२, १८९/२, २।३३।१३ आदि में 'शं च योश्च' ) । इन स्थलों पर शब्दों का सामान्यतः अर्थ लगाया जाता है, 'सुख एवं कल्याण' या 'स्वास्थ्य एवं धन' | 'शम्' शब्द ऋग्वेद में १६० बार आया है। ऋ० (१। ११४।१ ) में आया है - 'हम लोग इन स्तुतियों को उस रुद्र को देते हैं, जो शक्तिशाली है, जिसको जूड़ा है, जो वीरों पर शासन करता है, जिससे कि हमारे दो पैरों वाले एवं चार पैरों वाले प्राणियों का कल्याण हो तथा इस ग्राम में प्रत्येक वस्तु समृद्धिशाली एवं कष्टरहित हो ।" यहाँ 'शम्' का भाव स्पष्ट है । कहीं कहीं वस्तुवाचक संज्ञाओं के रूप में 'शम्' एवं 'योः' शब्द स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाते हैं। उदाहरणार्थ 'शं च योश्च रुद्रस्य वश्मि' (ऋ० २|३३|१३ ) एवं 'यच्छं च योश्च मनुरायेजे पिता तदश्याम तव रुद्र प्रणीतिषु ( ऋ० १।११४।२), अर्थात् 'हे रुद्र, हम आपके मार्गदर्शन से उन 'शम्' एवं 'योः' को प्राप्त कर सकें, जिन्हें पिता मनु ने यज्ञ से प्राप्त किया।' निरुक्त (४।२१ ) में व्युत्पत्ति आयी है । 'शम्' एवं 'योः' का अन्वय-रूप अर्थ क्रम से 'सुख' एवं 'दुःख-वियोग' है । अथर्ववेद (१९/९) में 'शान्ति' शब्द १७ बार आया है । ३ से लेकर ५ तक के मन्त्रों में वाक् एवं मन तथा पाँच इन्द्रियों की ओर संकेत आया है और ऐसा कहा गया है कि ये सातों घोर ( भयंकर या अशुभ) उत्पन्न करते हैं और इन्हीं में शान्ति उत्पन्न करने के लिए प्रयास करना चाहिए ( १९/९/५ ) । ६ से ११ तक के मन्त्रों में देवों, ग्रहों,पृथिवी, उल्कापातों, गौओं, नक्षत्रों, जादू- कृत्यों, राहु, घूमकेतु, रुद्रों, वसुओं, आदित्यों, ऋषियों एवं बृहस्पति की स्तुति सुख देने के लिए की गयी है । १२वें मन्त्र में इन्द्र, ब्रह्मा तथा अन्य देवों से प्रार्थना की गयी है कि वे स्तुतियों के प्रणेता को आश्रय दें, और १३वें में घोषणा है— इस विश्व में (शान्ति द्वारा ) जितनी वस्तुएं प्रसन्न की गयीं, उन्हें सातों ऋषि जानते हैं । वे सभी मेरे सुख के लिए हों; सुख मेरा हो, भय से मेरी रहितता ( छुटकारा ) हो ।' १४ वाँ मन्त्र जो वॉज० सं० (३६।१७ ) के समान है, घोषित करता है, 'पृथिवी, रोदसी, स्वर्ग, जल, वृक्ष-पौधे, सभी देव ( इस वचन के) प्रणेता द्वारा किये गये कृत्यों से उन्हीं शान्तियों द्वारा प्रसन्न हो चुके हैं और शुभ हो चुके हैं तथा उन शान्तियों द्वारा यहाँ जो कुछ दारुण हैं, क्रूर (अशुभ) है, पाप है ( उनके बुरे प्रभाव ) दूर हों; वे सभी १. इमा रुद्राय तवसे कर्पादने क्षयद्वीराय प्रभरामहे मतीः । यथा शमसद् द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन्नमातुरम् ॥ ऋ० ( १ ११४।१) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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