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धर्मशास्त्र का इतिहास
धार्मिक पंचांग के विषय में निम्नांकित निष्कर्ष हैं
(५) सौर मासों की गणना, जो उसी नाम वाले मासों की जानकारी के लिए आवश्यक है, वासन्तिक विषुव से २३ अंश एवं १५ कला (निश्चित अयनांश) पहले ही की जायगी। यह आज के अधिकांश पंचांग-निर्माताओं के व्यवहार की संगति के लिए है।
___ इस प्रकार मासों का आरम्भ निम्न रूप से होगा--सौर वैशाख सूर्य के २३°१५' रेखांश से आरम्भ होगा, सौर ज्येष्ठ और चत्र तक अन्य सौर मास क्रम से ये होंगे-५३°१५', ८३°१५',११३° १५', १४३°१५', १७३° १५', २०३° १५', २३३°१५, २६३° १३', ३९३° १५', ३२३° १५', ३५३° १५'।
यह केवल समझौता मात्र है, जिससे परम्परा अचानक उखड़ न जाय। फिर भी इससे कालिदास एवं वराहमिहिर के कालों की ऋतुओं और आज की ऋतुओं में समानता नहीं पाया जा सकेगी। ऐसी आशा जाती है कि शीघ्र ही सुधारों के फलस्वरूप चान्द्र एवं सौर पर्वोत्सव उन्हीं ऋ ओं में हो सकेंगे, जैसा कि आरम्भिक कालों में सम्भव था और उनका प्रचलन था।
(६) जैसा कि पहले भी मान्य था, धामिक उपयोगों के लिए चान्द्र मास प्रतिपदा से आरम्भ होंगे और उस सौर मास के, जिसमें प्रतिपदा पड़ती है, नाम से पुकारे जायेंगे। यदि सौर मास में दो प्रतिपदाएँ पड़ जायँगी तो प्रथम प्रतिपदा से आरम्भ होने वाला चान्द्र मास अधिक या मलमास कहलायेगा और दूसरी प्रतिपदा से आरम्भ होने वाला चान्द्र मास शुद्ध या निज मास कहलायेगा।
(७) १३° २०' नक्षत्र माग से चन्द्र के आगे चले जाने या अस्त का क्षण या उसमें सूर्य का प्रवेश परिवर्तित अयनांश से गणित किया जायगा। इस अयनांश का मूल्य (मान) २१ मार्च सन् १९५६ में २३° १५' ०" था। इसके उपरान्त यह क्रमशः बढ़ता गया है जिसका मध्यम मान लगभग ५०° २७” है।
____ इन व्यवस्थाओं से सूर्य द्वारा निर्धारित होनेवाले धार्मिक कृत्य, यथा विषुव-संक्रांति, उत्तरायण-संक्रान्ति एवं दक्षिणायन-संक्रान्ति ज्योतिषीय ढंग से उचित ऋतुओं में पड़ेंगी, किन्तु चान्द्र पंचांग से निर्धारित कृत्य आज की विधियों से ही चलते रहेंगे और संशोधित नियम द्वारा प्रयुक्त शोधन से ऋतुओं की गड़बड़ी रुक जायगी।
आज से १४०० वर्ष पहले जिन ऋतुओं में कृत्य होते थे उनसे आज के कृत्य २३ दिन पूर्व खिसक आये हैं। क्योंकि पंचांग-निर्माताओं ने विषुव-सम्बन्धी अग्रगमन पर ध्यान नहीं दिया। अब यह गड़बड़ी क्रमशः दूर हो जायगी। यों तो यह गड़बड़ी अचानक रोकी जा सकती है किन्तु संशोधकों ने सन्तुलन पर बल दिया है।
नक्षत्रों की गणना में परिवर्तित अयनांश का प्रयोग किया गया है, जिससे कि किसी विशिष्ट नक्षत्र में चन्द्र आकाश में उसी नाम के तारा या तारा-समूह में दिखाई पड़ जाय। यह वैदिक काल से ही चला आया है और पूर्णरूपेण वैज्ञानिक भी है।
(८) दिन की गणना अर्घरात्रि से अर्धरात्रि तक होगी (८२३° पूर्व रेखांश एवं २३° ११' उत्तरी अक्षांश के मध्य से) किन्तु यह लोक-दिन है। धार्मिक उपयोगों में सूर्योदय से ही दिन की गणना होगी।
(९) गणनाओं के लिए सूर्य एवं चन्द्र के रेखांशों का ज्ञान उनकी गतियों के समीकरणों से किया जाय, जिसके निरीक्षित मूल्यों से संगति बैठती रहे।
(१०) भारतीय शासन द्वारा भारतीय पंचांग एवं नौ (नाविक) पंचांग का निर्माण होते रहना चाहिए, जिससे सूर्य, चन्द्र, ग्रहों तथा अन्य आकाशीय पिण्डों के स्थानों का अग्रिम ज्ञान होता रहे। प्रति वर्ष उपयुक्त संशोधनों के आधार पर बने हुए लौकिक एवं धार्मिक भारतीय पंचांग का निर्माण होना चाहिये।
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