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________________ पंचाग का अन्तिम मैन-करण दषयोग, मृत्युयोग, घबाड़ आदि। स्थान-संकोच से इनका वर्णन यहां नहीं होगा (देखिए रत्नमाला, ८1८; भुजबलनिबन्ध, पृ० ३१, श्लोक १२६ एवं पृ० २८, श्लोक ११४)। पंचांग का पांचवां अंग है करण। तिथि का अर्थ करण होता है, अतः एक तिथि में दो करण तथा एक चान्द्र मास में ६० करण होते हैं। करण के दो प्रकार हैं, : चर एवं स्थिर। बृ० सं० (९९।१-२) में देवता-नाम के साथ ७ चर करण ये हैं : (१) भव-इन्द्र; (२) बालव-ब्रह्मा; (३) कोलक-मित्र; (४) तैतिल---अर्यमा; (५) गर (या गज)--पृथिवी; (६) वणिज--श्री; (७) विष्टियम। देवता-नाम के साथ चार स्थिर करण ये हैं : (१) शकुनि कलि; (२) चतुष्पाद-वृष; (३) नाग--सर्प; (४) किंस्तुध्न-वायु। तिथि का दो में विभाजन राशि के दो होराओं के विभाजन के समान है (बृहज्जातक १२९)। इन विभाजनों में पूर्ववर्ती कौन है ? सम्भवतः तिथियों का दो करणों में विभाजन पूर्ववर्ती है। 'करण' शब्द 'कृ' धातु से बना है, यह तिथि को दो भागों में करता है, अतः यह करण कहा गया है। बहुत-से करणों के नाम विचित्र हैं, उनके अर्थ का बोध नहीं हो पाता। करणों का उपयोग ज्योतिषीय (फलित ज्योतिषीय) है अतः उनका प्रयोग ४०० ई० के पूर्व ही हुआ होगा। इनके विषय में देखिए बृ० सं० (९९।३-५)। धर्मशास्त्र के मध्य काल के लेखकों के मन में विष्टि नामक सातवें करण ने दारुण भय उत्पन्न कर दिया है। यह द्रष्टव्य है कि यदि चान्द्र मास की तिथियों को ६० भागों में बाँटा जाय और अमान्त मास की प्रतिपदा के दूसरे अर्ध में बव का आरम्भ हो तो विष्टि एक मास में आठ बार आयेगी, जैसा निम्न तालिका से व्यक्त है बव- २ १ १६ २३. ३० ३७ बालव-३ १० कोलव-४ ११ तैतिल-५ १२ १९ गर-६ १३ २० २७ ३४ ४१ वणिज-७ १४ २१ २८ विष्टि-८ १५ २२ २९ ३६ इनमें स्थिर करण होंगे शकुनि ५८, चतुष्पाद ५९, नाग ६० एवं किंस्तुघ्न १ (आगे के मास के प्रथम पक्ष की प्रतिपदा)। करणों की प्रणाली मनोराज्यमयी कल्पना मात्र है। करणों के विषय में, विशेषतः विष्टि के विषय में (जो मास में आठ बार होती है) जो यह कहा गया है कि यह भुजंग (सॉप) के आकार की है, दारुण है, आदिआदि, वह ज्योतिषीय भावनाओं से सम्बन्धित कल्पना की उच्च उड़ान मात्र है। 13 ६. कुर्याद बवे शुभचरस्थिरपौष्टिकानि धर्मक्रियाद्विजहितानि च बालवाल्ये। संप्रीतिमित्रवरणानि च कौलवे स्पः सौभाग्यसंश्रयगृहाणि च तैतिलाल्ये ॥ कृषिबीजगृहाश्रयजानि गरे वणिजि ध्रुवकार्यवणिग्युतयः। न हि विष्टिकृतं विवषाति शुभं परघातविषादिषु सिसिकरम् ॥ कार्य पौष्टिकमौवषादि शकुनो मूलामि मन्त्रास्तथा गोकार्याणि चतुष्पदे विजपितृनुविश्य राज्यानि च। नागे स्थावरवारुणानि हरणं दौर्भाग्यकमयितः किस्तुन्ने शुभामष्टिपुष्टिकरणं मंगल्यसिद्धिक्यिा ॥१० सं० (९९॥३-५)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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