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________________ ३३८ प्रशास्त्र का इतिहास सूर्य मित्र पृथ्वी नाम देवता नाम देवता ९. शूल १८. वरीयान् कुबेर १०. गण्ड अग्नि १९. परिघ विश्वकर्मा ११. वृद्धि २०. शिव १२. ध्रुव २१. सिद्ध कार्तिकेय १३. व्याघात पवन २२. साध्य सावित्री १४. हर्षण २३. शुभ कमला १५. वज्र वरुण २४. शुक्ल गौरी १६. सिद्धि गणेश २५. ब्रह्म अश्विनी १७. व्यतीपात शिव २६. ऐन्द्र पितर गण २७. वैधृति अदिति ये नित्य योग कहे जाते हैं। रत्नमाला के मत से ये अपने नामों के अनुसार शुभ या अशुभ फल देते हैं। मुहूर्तदर्शन (२।१६) के मत से इन २७ योगों में ९ निन्ध हैं, यथा परिघ, व्यतीपात, वज्र, व्याघात, वैधृति, विष्कम्भ, शूल, गण्ड एवं अतिगण्ड । 'रत्नमाला' में कहा गया है कि व्यतीपात एवं वैधृति पूर्णरूपेण अशुभ हैं, परिघ का पूर्वार्ध एवं अशुभ नाम वाले योगों का प्रथम पाद अशुभ हैं; सभी शुभ कृत्यों में विष्कम्भ एवं वज्र की तीन घटिकाएँ, व्याघात की ९,शूल की ५, गण्ड एवं अतिगण्ड की ६ घटिकाएं वजित हैं। और देखिए अग्निपुराण (१२७। १-२), कालनिर्णय (पृ० ३२९-३३०) एवं कालनिर्णयकारिका (१०८-१०९)। योगों की पद्धति बहुत प्राचीन मानी जानी चाहिए। याज्ञ० (११२१८) में व्यतीपात योग का उल्लेख है। हर्षचरित (उच्छ्वास ४) में बाण ने कहा है कि जब हर्ष का जन्म हुआ तब व्यतीपात' जैसे दोषों से दिन रहित था (व्यतीपातादि-सर्वदोषाभिषंगरहितेऽहनि)। सामान्यतः वर्ष में १३ (कभी-कभी १४) व्यतीपात योग होते हैं और ९६ श्राद्धों में १३ व्यतीपातों के श्राद्ध सम्मिलित हैं। इन २७ योगों के अतिरिक्त कुछ और भी योग हैं जो किन्हीं तिथियों के साथ किन्हीं सप्ताह-दिनों के संयुक्त होने से उत्पन्न होते हैं या कि जब कोई ग्रह किन्हीं विशिष्ट राशियों में किन्हीं विशिष्ट तिथियों या नक्षत्रों पर बैठ जाते हैं। कपिलाषष्ठी एवं अर्धोदय इसी प्रकार के योग हैं। व्यतीपात, जो २७ योगों में १७ वा है, दो अर्थों में प्रयुक्त होता है-(१) जब अमावास्या रविवार को पड़ती है और चन्द्र श्रवण, अश्विनी, धनिष्ठा, आर्द्रा एवं आश्लेषा नक्षत्रों में किसी के प्रथम पाद में रहता है, (२) जब शुक्ल पक्ष की द्वादशी को बृहस्पति एवं मंगल सिंह राशि में हों, सूर्य मेष में और जब वह हो तिथि हस्त नक्षत्र में हो। इन दोनों को कभी-कभी महाव्यतीपात भी कहते हैं। इन योगों पर दान करने की व्यवस्था दी गयी है (लघुशातातप १५०; हेमाद्रि, काल, पृ० ६७२)। सूर्यसिद्धान्त (११।१-२) ने व्यतीपात एवं वैधृत (या वैधृति) की व्याख्या की है। जब सूर्य एवं चन्द्र दोनों अयनों (उत्तरायण एवं दक्षिणायन) की ओर रहते हैं और जब दोनों के रेखांशों का जोड़ एक वृत्त में होता है और वे बराबर झुकाव में रहते हैं तब वैधृति योग होता है। जब सूर्य एवं चन्द्र अयनों के दोनों ओर रहते हैं और उनके झुकाव समान होते हैं तब वह व्यतीपात होता है और उनके रेखांशों का जोड़ अर्धवृत्त होता है। यह नहीं समझ में आता कि ये योग-काल अशुभ क्यों माने जाते हैं। वैधृति नामक २७ वाँ योग सभी दशाओं में व्यतीपात के समान ही है। भरद्वाज का कथन है कि इन दोनों योगों में दान करने से अनन्त फल मिलता है। इन २७ योगों के अतिरिक्त बहुत-से योगों का उल्लेख पंचांगों में होता है, यथा अमृतसिद्धि, यमघण्ट, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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