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पंचांग का चतुर्व मंग-योग
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ग्यारह : एकादश, महेश्वर, रुद्र। बारह : द्वादश, आदित्य, अर्क, सूर्य, मास । तेरह : त्रयोदश, विश्वे (विश्वेदेवाः)। चौदह : चतुर्दश, मनु, इन्द्र, भुवन, रत्न । पन्द्रह : पञ्चदश, तिथि। सोलह : षोडश, कला (चन्द्रकलाएँ), नृप या राजा, अष्टि । सत्रह : सप्तदश, अत्यष्टि। अठारह : अष्टादश, धृति। उन्नीस : एकोनविंशति, अतिधृति । बीस : विंशति, कृति, नख (नाखून), अंगुलि। इक्कीस : एकविंशति, प्रकृति, मूर्च्छना (संगीत में)। बाईस : द्वाविंशति, जाति, आकृति। चौबीस : चतुर्विशति, जिन या सिद्ध (२४ तीर्थकर)। पच्चीस : पंचविंशति, तत्त्व (२५ सांख्य-सिद्धान्त)। सत्ताईस : सप्तविंशति, भू, नक्षत्र। बत्तीस : द्वात्रिंशत् , दशन या द्विज (दोनों का अर्थ दाँत है)। तैतीस : त्रयस्त्रिशत्, सुर (देवता)। उनचास : एकोनपंचाशत्, तान (संगीत में)।
वराहमिहिर (पंचसिद्धान्तिका एवं बृहत्संहिता) एवं अन्य पश्चात्कालीन ज्योतिर्विदों ने अधिकतर अंकों एवं दशमलव स्थानों के लिए इसी प्रकार के विशिष्ट शब्दों का प्रयोग किया है। एक विशिष्ट द्रष्टव्य बात यह है कि शब्द-दल (जो संख्यासूचक होते हैं) के प्रथम शब्द इकाई के स्थान में होते हैं और उसके उपरान्त बाद वाले शब्द दहाई के स्थान में होते हैं, यथा सप्ताश्विवेद-संख्यम्'-४२७; नियम है--"अंकानां वामतो गतिः।"
आर्यभट ने अपने ग्रन्थ 'दशगीतिकापाद' (श्लोक ३) में एक अन्य विधि दी है, जहाँ क (का भी) से म तक १ से २५ अंकों के द्योतक हैं; य, र, ल, व, श, ष, स, ह क्रम से ३०,४०, ५०, ६०, ७०,८०, ९०, १०० के द्योतक हैं। अस्तु,
पंचांग के पांच अंगों में एक अंग है योग। इसके लिए कोई प्रत्यक्ष ज्योतिषीय घटना नहीं है। यह सूर्य एवं चन्द्र के रेखांशों के योग से (या यह वह काल है जिसमें सूर्य एवं चन्द्र देश के १३ अंश एवं २० कला पूर्ण करते हैं) माना जाता है । जब योग १३.२० अंशों का होता है उस समय विष्कम्भ योग का अन्त होता है; जब वह २६.४० अंशों का होता है तो प्रीति योग का अन्त होता है। योग २७ हैं और ३६० अंश बनाते हैं। रत्नमाला (४।१-३) में इस प्रकार के योग हैंदेवता
माम
देवता १. विष्कम्भ यम
५. शोभन
बृहस्पति २. प्रीति विष्णु
६. अतिगण्ड ३. आयुष्मान् चन्द्र
७. सुकर्मा ४. सौभाग्य ब्रह्मा
८. धृति
आपः
नाम
चन्द्र
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