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धर्मशास्त्र का इतिहास
भी वेदांगों से परिचित है, किन्तु वह पिंगल के ग्रन्थ से परिचित था कि नहीं, कोई संकेत नहीं मिलता। सम्भवतः आपस्तम्ब-धर्मसूत्र (२।४।८।१०-११) में यह छन्दोविचिति' के नाम से उल्लिखित है (षडंगो वेदः। छन्दः कल्पो व्याकरणं ज्योतिषं निरुक्तं शीक्षा छन्दोविचितिरिति)। शबर (लगभग २०० ई०, ४०० ई. के उपरान्त कभी नहीं) ने पिंगल के ग्रन्थ को पाणिनि-सूत्र के समकक्ष रखा है। इससे पिंगल की प्राचीनता स्वतः प्रमाणित हो जाता है।
अंकों को लिखने की कई परिपाटियाँ थीं। एक परिपाटी ऐसी थी जिसके अनुसार एक अंक विभिन्न स्थानों के अनुसार विभिन्न मूल्यों वाला हो जाता था, यथा अंक २, केवल २ या २० या २०० आदि हो सकता था यदि उसे इकाई पर या दहाई पर या सैकड़ा स्थान पर रखा जाय । एक परिपाटी थी शब्दों द्वारा पूर्ण अंकों का द्योतन करना। यह ज्योतिषीय ग्रन्थों में उत्तम परिपाटी थी, क्योंकि लम्बे-लम्बे आलेखनों में यह सरल सी थी और उन दिनों पाण्डुलिपियाँ ही बनती थीं, मुद्रण-यन्त्र नहीं थे। पाण्डुलिपियों के निर्माण में अंकों के लेखन में अशुद्धि हो सकती थी, किन्तु मात्राओं से सम्बद्ध होने के कारण शब्द में से कुछ भी छूटना सम्भव नहीं था, क्योंकि ऐसा होने पर अशुद्धि हठात् प्रकट हो जाती थी और लेखक शुद्ध कर लेते थे। यह था श्लोक या मात्रा के प्रयोग का चमत्कार । उदाहरणार्थ, त० ब्रा० (१।५।११११) में 'कृत' शब्द 'चार' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वराहमिहिर (छठी शती के आरम्भ में) ने शब्द-अंकों का प्रयोग किया है, किन्तु मूल्य-स्थान पद्धति के अनुरूप । नीचे हम शब्द-अंकों की सूची दे रहे हैं। यह अन्तिम सूची नहीं है। एक ही अंक या संख्या के लिए बहुत-से पर्याय पाये जाते हैं। देखिए अल्बरूनी (सचौ, खण्ड १,प.० १७४-१७९) एवं बुहलर की 'इण्डिएन पैलिओग्राफी' (इण्डियन ऐटीक्वेरी, ,जिल्द ३३ ; परिशिष्ट, पृ०८३-८६)।
० : शून्य, ख, अम्बर, गगन, अभ्र, आकाश, बिन्दु, पूर्ण। ___ एक : एक, भूमि, इन्दु, रूप, आदि, विष्णु।
दो : द्वि, अक्षि या लोचन, पक्ष, अश्विनी, दस्र, दोः, दोषन्, भुज, यम या यमल। तीन : त्रि, क्रम (विष्णु के तीन पाद, ऋ० ११२२।१८), ग्राम (संगीत में), राम, पुर (रुद्र द्वारा जलाया
गयी नगरियाँ), लोक (पृथिवी, स्वर्ग एवं नरक), गुण (सत्त्व, रजस्, तमस्), अग्नि (गार्हपत्य,
आहवनीय एवं दक्षिणाग्नि)। चार : चतुर्, अब्धि (समुद्र), कृत, युग, वेद, श्रुति, वर्ण। पाँच : पंच, इषु या शर (मदन के बाण), वायु (प्राण, अपान, व्यान, उदान एवं समान), भूत (पृथिवी, जल,
तेज, वायु, आकाश), अक्ष (इन्द्रियाँ), इन्द्रिय, पाण्डव' या पाण्डु-सुत । छह : षट्, रस (मधुर, तिक्त, कषाय, लवण आदि), अंग (वेदांग), ऋतु, तर्क (द्रव्य से समवाय तक की
तर्क-कोटियाँ), दर्शन (षट् दर्शन)। सात : सप्त, ऋषि या मुनि, स्वर, अश्व (सप्ताश्व), गिरि, पर्वत, धातु। आठ : अष्ट वसु, सर्प, मंगल, मतंगज (आठ दिशाओं के हाथी), सिद्धि। नौ : नव, संख्या (१ से ९ तक), नन्द (९ नन्द राजागण), रन्ध्र या छिद्र, निधि, अंक, गौ, ग्रह या नभश्चर। दस : दश, पंक्ति, आशा या दिशा (ऊर्ध्व एवं अघर को मिलाकर), अवतार, रावणशीर्ष।
५. पंक्तिविंशतित्रिंशच्चत्वारिंशत्पञ्चाशत्षष्टिसप्तत्यशीतिनवतिशतम् । पाणिनि (६।११५९)।
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