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________________ भारत में अंक-शान की प्राचीनता में ईंटों की संख्याएँ आयी हैं, यथा १, १००, १०००, अयुत (१०,०००), नियुत, प्रयुत, अर्बुद, न्यर्बुद, समुद्र, मध्य, अन्त एवं परार्ध। और देखिए वहीं (७।२।११-१९), (७२।२०), (४।४।११।३-४) आदि। इन बातों से स्पष्ट है कि ई० पू० एक सहस्र वर्ष पहले से वर्षों की ज्योतिश्शास्त्रीय संख्याएँ परिज्ञात थीं। क्या यूनान में अर्बुद के आगे की संख्याएँ पायी गयी थीं? निरुक्त (३।१०) ने एक, द्वि, त्रि, चतुर्, अष्ट, नव, दश, विंशति, शत, सहस्र, अयुत, नियुत, प्रयुत, अर्बुद की व्युत्पत्ति की है। और देखिए पाणिनि (५।१।५९), सभा० (६५।३-४), आर्यभट (गणितपाद २), वायु० (१०१।९३-१०२)। यह द्रष्टव्य है कि प्राचीन यूनानियों के पास एक नियुत (दशलक्ष) के लिए कोई एक शब्द था ही नहीं। विष्णुपुराण (६।३।४-५) के मत से परार्ध एक से आगे का १८ वा त्रम है, और प्रत्येक क्रम अपने से पूर्व के क्रम से दसगुना है। भारत में कई शतियों से प्रयुक्त १८ क्रमों की तालिका निम्न ढंग से है-“एक-दशशतसहस्रायुतलक्षप्रयुतकोटयः क्रमशः। अर्बुदमजं खर्वनिखर्वमहापद्मशंकवस्तस्मात् ॥ जलधिश्चान्त्यं मध्यं परार्धमिति दशगणोत्तराः संज्ञाः। संख्यायाः स्थानानां व्यवहारार्थ कृताः पूर्वः॥" लीलावती (परिभाषा, १०-११।। परार्धमिति दशगणोत्तरा:संज्ञाः। संख्यायाः स्थानानां व्यवहारार्थ कृताः पूर्वैः॥" लीलावती (परिभाषा, १०-११)। (१) एक (१०) अब्ज या पक्ष (२) दश (११) खर्व (३) शत (१२) निखर्व (४) सहस्र (१३) महापद्म (५) अयुत (१४) शंकु (६) लक्ष (१५) जलधि या समुद्र (७) प्रयुत (१६) अन्त्य (८) कोटि (१७) मध्य (९) अर्बुद (१८) परार्ध संहिताओं के निर्देशों से प्रकट है कि आज से सहस्रों वर्ष पूर्व भारतीयों को दशमलव पद्धति का ज्ञान था, किन्तु दशमलव' स्थानीय था या स्थानमूल्य पद्धति वाला-इन दोनों में कौन-सा वैदिक काल में ज्ञात था, अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। सामान्यतः यह विश्वास किया जाता है कि आधुनिक दशमलव पद्धति भारतीय है, जिसे भरब वालों ने भारत से लिया और आगे चलकर यूरोपियों ने अरबों से उसे प्राप्त किया। यह पद्धति अरब वालों ने १२ वीं शती में यूरोप में प्रचारित की। यह पद्धति मानव के उच्चतम कोटि वाले आविष्कारों में एक है। इस विषय में बहुत कुछ लिखा जा चुका है और सिद्ध किया जा चुका है कि गणित-गुरु भारतीय ही रहे हैं। बहुत-से हठवादी यूरोपीय लेखक भारत को इसका श्रय नहीं देना चाहते थे। सन् १९५६ ई० में कास्टेस रीड महोदय ने अपनी पुस्तक 'फार्म जीरोटु इनफिनटी' में लिखा है कि शून्य दस अंकों में प्रथम अंक है और इसके द्वारा अनन्त तक की संख्याओं की परिगणना सम्भव है। इस अद्भुत आविष्कार पर पैथागोरस, यूक्लिड एवं आर्किमिडिज जैसे महान् यूनानियों का भी ध्यान नहीं जा सका था। मिस्त्रियों को भी दशमलव के स्थानीय मूल्य का ज्ञान नहीं था। बेबलोनी लोग भी इस ज्ञान से अछूते रहे हैं। यह कहना कठिन है कि भारत में यह ज्ञान कब उत्पन्न हुआ। किन्तु ईसा के पहले कई शतियों पूर्व भारतीयों ने इसका ज्ञान कर लिया था। छन्द-मात्रा के विषय पर पिंगल मुनि का एक ग्रन्थ वेदांग है। पिंगल का वह छन्दः सूत्र शून्य का प्रयोग करता है (८।२८-३१) । शतपथ ब्रा० (११।४।३।२०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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