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धर्मशास्त्र का इतिहास
वाहर आ जाते हैं। ब्रह्म (५२११२-२९ एवं ५३।५५) का कथन है कि कल्पान्त के समय मार्कण्डेय एक वट वृक्ष देखते हैं और रत्नजटित एक शय्या पर पड़े हुए एक बालक (स्वयं विष्णु) को देखते हैं। इसके उपरान्त वे उसमें प्रवेश कर जाते हैं और बाद को बाहर आ जाते हैं। और देखिए मत्स्य० (१६७।१४-६६)। भगवद्गीता (८।१८-१९) में ब्रह्मा की रात्रि के आगमन पर सभी प्राणियों के बार-बार लय एवं ब्रह्मा के दिन के आरम्भ पर प्राणियों के पुनरुद्भव की बात आयी है।
युगों, मन्वन्तरों एवं कल्पों का सिद्धान्त तथा कल्पनामय वर्षों की संख्या एवं प्रलय के भीषण रूप का वर्णन आदि अवास्तविक एवं मनोराज्यमयी कल्पना मात्र है। किन्तु इसमें अन्तहित भाव है अखिल ब्रह्माण्ड की काल-रहितता; यद्यपि समय-समय पर यह प्रकट होता है, क्रमशः घटता, नष्ट हो जाता है, केवल दिव्य प्रकाश के उपरान्त पूर्णता के रूप में पुनः प्रकट होने के लिए। इसमें यह भावना भी है कि मानव वास्तविकता के पीछे पड़ा रहता है और भाँति-भाँति के आदर्शों की प्राप्ति करना चाहता है। इसमें यह महान् भावना है कि मानव किसी विशिष्ट लक्ष्य को लेकर चलता है, विभिन्न प्रकार के बड़े-बड़े प्रयासों एवं उद्योगों के साथ उसकी प्राप्ति का प्रयत्न करता है, कुछ सफलता के उपरान्त उस लक्ष्य का त्याग करता है और उस ढंग को भी छोड़ता है जिसके सहारे वह आगे बढ़ा था और पुनः किसी अन्य लक्ष्य का निर्धारण करता है और उसकी प्राप्ति के लिए बहुत काल तक इस आशा से प्रयत्न करता है कि सूदूर काल में वह ऐसे समाज का निर्माण कर सके जो पूर्ण हो। मनु (१९८६) में आया है-'कृतयुग में तप सर्वोच्च लक्ष्य था, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ, कलि में केवल दान।' यह बात मानव के विभिन्न सुन्दर उद्योगों एवं प्रेरणाओं की द्योतक है। . युगों, मन्वन्तरों एवं कल्पों के सिद्धान्त के विस्तारों के विषय में कई मत-मतान्तर हैं। कुछ यहाँ दिये जा रहे हैं। आर्यभट के मत से चारों युगों का विस्तार समान था, न कि ४, ३, २ एवं १ के समानुपात में; उन्होंने कहा है कि जब वे २३ वर्ष के थे तो तीन युगपाद एवं ३६०० वर्ष व्यतीत हुए थे (कालक्रियापाद १०)। ब्रह्मगुप्त (११९) ने कहा है कि यद्यपि आर्यभट ने घोषित किया है कि कृतयुग आदि युगों के चार पाद बराबर हैं, किन्तु स्मृतियों में ऐसी बात नहीं पायी जाती। एक अन्य विरोधी बात भी है। आर्यभट (दशघटिका, श्लोक ३) ने कहा है कि मनु ७२ युगों की एक अवधि है, किंतु अन्य स्मृतियों एवं पुराणों ने मन्वन्तर को ७१ युग माना है। आर्यभट ने यह भी कहा है कि ब्रह्मा का दिन १००८ चतुर्युगों के बराबर है (ब्रह्मगुप्त श१२) । प्रसिद्ध वैज्ञानिक ज्योतिविद् भास्कराचार्य (१११४ ई० में उत्पन्न) ने अधर्य के साथ कहा है-'कुछ लोगों का कथन है कि ब्रह्मा का अर्ध जीवन (अर्थात् ५० वर्ष) समाप्त हो चुका है, किन्तु कुछ लोगों के मत से ५८ वर्ष व्यतीत हुए हैं। चाहे जो सत्य परम्परा हो, इसका कोई उपयोग नहीं है, ब्रह्मा के चालू दिन में जो दिन म्यतीत हो चुके हैं, उन्हीं में ग्रहों की स्थितियों को रखना है।'
' उपर्युक्त बातों के सिलसिले में हमें संख्याओं, अंकों, उनकी प्राचीनता तथा तथा अंक-लेखन के विषय में भी थोड़ी विज्ञता प्राप्त कर लेनी चाहिए। ऋग्वेद में १ से १० तक के अंकों का बहुधा उल्लेख है। 'सहस्र' एवं 'अयत' (१० सहस्त्र) भी उल्लिखित हैं (ऋ० ४।२६७, ८।१५ एवं ८२॥१८)। और भी देखिए ऋ० (८।४६।२२), (११५३।९), (१।१२६॥३), (८।४।२०), (८।४६।२९) आदि । तै० सं० (४।४।११।३-४)
४. तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते । द्वापरे यज्ञमेवाहुनमकं कलौ युगे॥ मनु (११८६)। देखिए यही बात शान्ति० (२३।२८), वायु० (८०६५-६६), पराशरस्मृति (१९२३)।
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