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________________ मलय का वर्णन ३३३ कलियुग के ( जो पुराणों के अनुसार ४,३२,००० वर्षों तक चलेगा और जो ५०७१ वर्षो लक, सन् १९७० ई० में, बीत चुका है) निराशावादी एवं दारुण वृत्तान्तों का उल्लेख वन० (अध्याय १८८, १९० ), शान्ति० (६९/८० - ९७ ), हरिवंश ( भविष्यपर्व, अध्याय ३-५ ), ब्रह्म० ( अध्याय २२९ - २३० ), वायु० (अ० ५८, ९९), मत्स्य ० ( १४४१३२ - ४७ ), कूर्म० ( १।३० ) तथा अन्य पुराणों में किया गया है। देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड ३, जहाँ वनपर्व का संक्षेप दिया हुआ है । वायु० (अ० २१ २३ ) में ३३ कल्पों के नाम आये हैं । मत्स्य ० ( २९० ) ने ३० कल्पों के नाम दिये हैं । ब्रह्माण्ड ० ( २।३१।११९) में आया है कि कल्प ३५ से न कम हैं और न अधिक । पुराणों में प्रलय के चार प्रकार दिये गये हैं नित्य ( जो जन्म लेते हैं उनकी प्रति दिन की मृत्यु ), नैमित्तिक ( जब ब्रह्मा का एक दिन समाप्त होता है, और विश्व का नाश होता है ) प्राकृतिक ( जब प्रत्येक वस्तु प्रकृति में विलीन हो जाती है) तथा आत्यन्तिक प्रलय (मोक्ष, सम्यक् ज्ञान से परमात्मा में विलीनता) | कतिपय पुराणों में नैमित्तिक एवं प्राकृतिक प्रलयों का अति दुःखावह वर्णन पाया जाता है । कूर्म ० ( २२४५ | ११-५९) में उल्लिखित वर्णन का संक्षेप यहाँ दिया जा रहा है। जब एक सहस्र चतुर्युगों का अन्त होता है तो एक सौ वर्षों तक वर्षा नहीं होती; परिणाम यह होता है कि प्राणी मर जाते हैं और पृथिवी में विलीन हो जाते हैं; सूर्य की किरणे असह्य हो जाती हैं, यहाँ तक कि समुद्र सूख जाते हैं; पर्वतों, वनों एवं महाद्वीपों के साथ पृथिवी सूर्य की भीषण गर्मी से जलकर राख हो जाती है। जब सूर्य की किरणें प्रत्येक वस्तु को जलाती गिरती हैं तो सम्पूर्ण विश्व एक विशाल अग्नि के सदृश लगता है। चल एवं अचल सभी वस्तुएँ जल उठती हैं। महासमुद्रों के जन्तु बाहर आकर राख बन जाते हैं। संवर्तक अग्नि प्रचण्ड आँधी से बढ़कर सम्पूर्ण पृथिवी को जलाने लगती है और उसकी ज्वालाएँ सहस्रों योजन ऊपर उठने लगती हैं, वे गन्धव, पिशाचों, यक्षों, नागों, राक्षसों को जलाने लगती हैं, केवल पृथिवी ही नहीं, प्रत्युत 'भुवः' एवं 'स्वः' लोक भी जल जाते हैं। तब विशाल संवर्तक बादल हाथियों के झुण्डों के समान, विद्युत से चमत्कृत हो आकाश में उठने लगते हैं, कुछ तो नीले कमलों के सदृश, कुछ पीले, कुछ धूमिल, कुछ मोम से लगने लगते हैं और आकाश छा जाते हैं और अति वर्षा कर अग्नि बुझाने लगते हैं। जब अग्नि बुझ जाती है, नाश के बादल सम्पूर्ण लोक को बाढ़ों से घेर लेते हैं; पर्वत छिप जाते हैं, पृथिवी पानी में निमग्न हो जाती है और सभी कुछ जलार्णव हो जाता है और तब ब्रह्मा यौगिक निद्रा में आ जाते हैं । वन० (२७२३२-४८) में नैमित्तिक प्रलय का संक्षिप्त वर्णन है । कूर्म ० ( १।४६ ) एवं विष्णु ० ( ६।४११२-४९) में प्राकृतिक प्रलय का वर्णन है जो सांख्य के वर्णन के समान है। संक्षेप में यों है जब अधः लोकों के साथ सभी लोक अनावृष्टि से नष्ट हो जाते हैं और महत् से आगे के सभी प्रभाव नष्ट हो जाते हैं, तो जल सर्वप्रथम गन्ध को सोख लेता है और जब गन्धतन्मात्रा नष्ट हो जाती है, पृथिवी जलमय हो जाती है; जल के विशिष्ट गुण रस-तन्मात्रा का नाश हो जाता है, केवल अग्नि शेष रहती है और सम्पूर्ण लोक अग्निज्वाला से परिपूर्ण हो जाता है; तब वायु अग्नि को आत्मसात् कर लेता है और रूप सन्मात्रा का विनाश हो जाता है; वायु सभी १० दिशाओं को हिला देता है; आकाश वायु के स्पर्श-गुण को हर लेता है और केवल आकाश ही शून्य- सा पड़ा रहता है और शब्द-तन्मात्रा चली जाती है। इस प्रकार सात प्रकृतियाँ महत् एवं अहंकार के साथ क्रम से समाप्त हो जाती हैं; यहाँ तक कि पुरुष एवं प्रकृति परमात्मा (विष्णु) में विलीन हो जाते हैं । विष्णु का दिन मानुष वर्षों के दो परार्थों के बराबर होता है । कुछ ऐसे ग्रन्थ, यथा हरिवंश (भविष्यपर्व, अध्याय १०/१२-६८), कहते हैं कि कल्प के अन्त में केवल मुनि मार्कण्डेय बचे रहते हैं और प्रलय ( या कल्प) के समय तक विष्णु में अवस्थित रहते हैं और फिर उनके मुख से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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