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अध्याय १९ कल्प, मन्वन्तर, महायुग, युग
युग (पाँच वर्ष) से लेकर सप्ताह एवं दिन के काल-विभाजन पर प्रकाश डालने के उपरान्त अब हम युग, महायुग, मन्वन्तर एवं कल्प की काल-विभाजन-सम्बन्धी चर्चा करेंगे। 'कल्प' शब्द का बीज ऋग्वेद (१०।१९०१३) में पाया जाता है, जहाँ ऐसा आया है-'सृष्टिकर्ता ने सूर्य, चन्द्र, दिन, पृथिवी एवं अन्तरिक्ष की, पहले की भांति, सृष्टि की।' निश्चित तिथि वाला अत्यन्त प्राचीन प्रमाण अशोक के भनुशासनों में पाया जाता है, यथा गिरनार एवं काल्सी का चौथा प्रस्तर-लेख (आव सवट कपा अर्थात् यावत् संवर्त-कल्पम् ) तथा शहबाजगढ़ी एवं मानसेरा का पाँचवा प्रस्तर-लेख (आव कपम्-यावत् कल्पम्) । इससे यह प्रमाणित हो जाता है कि कल्प के विशाल विस्तार के सिद्धान्त ई०पू० तीसरी शती के बहुत पहले से घोषित थे। बौद्धों ने भी कल्पों के सिद्धान्त को अपनाया था, जैसा कि महापरिनिब्बानसुत्त (३।५३) से प्रकट है-'हे भगवन्, कृपा करके कल्प में रहें। हे महाभाग, असंख्य लोगों के कल्याण एवं सुख के लिए कल्प भर रहें।'
ऐसा विश्वास चला आ रहा है कि आदि काल में मानव-समाज आदर्श रूप से अति उत्कृष्ट था और क्रमशः नैतिक बातों, स्वास्थ्य, जीवन-विस्तार आदि में क्रमिक अपकर्ष होता चला गया और सुदूर भविष्य में पुनः नैतिक बातों आदि का स्वर्ण युग अवतरित होगा। इस विषय में हमने इस महाग्रन्थ के खण्ड ३ में पढ़ लिया है। 'युग' शब्द के कई अर्थ हैं-काल की अल्पावधि (ऋ० ३।२६॥३), पांच वर्षों का एक वृत्त, दीर्घावधि एवं सहस्रों वर्ष की अवधि। प्रो० मन्कड़ ने 'पूना ओरिण्टलिस्ट' (जिल्द ६, पृ० २११-२१२) में इसके दस अर्थ दिये हैं। उनकी सभी बातें ग्रहण नहीं की जा सकतीं, उदाहरणस्वरूप, जब वे शाकुन्तल (४ युगान्तरम् आरूढः सविता) में युग को दिन का चौथाई भाग मानते हैं। ऐसा कहीं भी उल्लिखित नहीं हुआ है। शाकुन्तल में उसका अर्थ होना चाहिए 'सूर्य आकाश में (पूर्व क्षितिज में) एक युग (धुरा) ऊपर आ गया है।' ऋ० (१०१६०८, १०।१०११३ एवं ४) में भी यही अर्थ है। महाभारत, मन एवं पुराणों में युगों, मन्वन्तरों एवं कल्पों के विषय में बहत कुछ विस्तार के साथ कथित है। यग चार है-कृत, त्रेता, द्वापर एवं तिष्य या कलि और ये केवल भारत से सम्बन्धित माने गये हैं। हमने इस महाग्रन्थ के सन ३ में पड़ लिया है कि भारम्भिकम्प में चूत (जुआ) के किन्हीं चार पाशों के
१. सूर्याचन्द्रमसौ पाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमयो स्वः। ऋ० (१०।१९०३)।
२. चत्वारि भारते वर्षे युगानि मुनयो विदुः। कृतं श्रेता द्वापरं च तिष्यं चेति चतुर्युगम् ॥ वायु० (२४११, ४५।१३७ एवं ५७।२२)। और देखिए मत्स्य० (१४२३१७-१८), ब्रह्म (२७३६४)। द्वापर युग के अन्त के विषय में कई बातें पायी जाती हैं। ऐसा आया है कि कौरवों एवं पाण्डवों का युद्ध वापर एवं कलि की सन्ध्या में हुआ (आदि० २।१३) शल्य० (६०।२५), वन० (१४९।३८) में पाया है कि जब भारतयुद्ध होने वाला था तो कलियुग समीप था। किन्तु बहुत-से पुराणों में ऐसा आया है कि कृष्ण ने जब अपने अवतार का अन्त किया और स्वर्ग चले गये
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