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भारत में सात वारों का प्रचलन; काल-गणना
३२९ (त्रुटि से युग तक) उल्लेख किया है और कहा है कि दो नाडिकाएँ एक मुहूर्त के तथा एक अहोरात्र (दिन-रात) ३० मुहूर्तों के बराबर हैं। इससे प्रकट है कि कौटिल्य को केवल ६० नाडिकाओं वाला दिन ज्ञात था। एक नाड़ी बराबर थी एक घटी (या घटिका) के।
काल-गणना की अन्य विधि भी प्रचलित थी, यथा-६ बड़े अक्षरों के उच्चारण में जो समय लगता है उसे प्राण कहा जाता है; ६ प्राण मिलकर एक पल के बराबर होते हैं, ६० पल एक दण्ड, घटी या नार्ड के बराबर (सूर्यसिद्धान्त १।११; ज्योतिस्तत्त्व, पृ० ५६२)। पाणिनि (३।२।३०) ने 'नाडिन्धम' को व्युत्पत्ति 'नाड़ी' से की है। 'नाड़ी' एक अति प्राचीन शब्द है।" यह ऋग्वेद (१०।१३५१७) में आया है जिसका अर्थ है मुरली। लगता है, आगे चलकर यह कालावधि का द्योतक हो गया जो शंख या मुरली या तुरही जैसे बाजे के बजाने से प्रकट किया जाता था और जो 'नाड़ी' के रूप में (एक दिन के ६० वें भाग में) घोषित हो गया, क्योंकि उन दिनों घड़ियाँ नहीं होती थीं। अतः ६० नाड़ियों एवं घटियों (दोनों शब्द पतञ्जलि द्वारा, जो ई० पू० १५० में विद्यमान थे, प्रयुक्त हुए हैं) का दिन-विभाजन बहुत प्राचीन है। सूर्यसिद्धान्त में २४ घण्टों की चर्चा है, किन्तु वह ग्रन्थ पश्चात्कालीन है और उस पर बाह्य प्रभाव हो सकता है, किन्तु उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत में दिन-विभाजन की परिपाटी (अर्थात् दिन को घटियों एवं नाड़ियों में बाँटना) अति प्राचीन है और उस पर बाह्म प्रभाव की बात ही नहीं उठती। स्वयं पतंजलि ने नाड़ी एवं घटी के प्रयोग को पुराना माना है। अतः ई० पू० दूसरी शती से बहुत पहले नाड़ी एवं घटी का प्रचलन सिद्ध है। पूर्ण रूप से सप्ताह-दिनों पर भी बाह्य प्रभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता। बेबिलोनी एवं सीरियाई प्रचलन के प्रभाव की बात उठायी जाती है, किन्तु इसे समानता मात्र से सिद्ध नहीं किया जा सकता। केवल पाश्चात्य हठवादिता प्रमाण नहीं हो सकती। देखिए कनिंघम (इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द १४,१०१) जहाँ युरोपीय एवं भारतीय सप्ताह-विभाजन की तालिकाएँ एवं रेखा दिये हए हैं। अल्बरूनी (सची, जिल्द १, अध्याय १९, प० २१४-२१५) ने लिखा है कि भारतीय लोग ग्रहों एवं सप्ताह-दिनों के विषय में अपनी परिपाटी रखते हैं और दूसरे लोगों की परिपाटी को, भले ही वह अधिक ठीक हो, मानने को सन्नद्ध नहीं हैं।
११. 'नाड़ी' एवं 'नाडिका के कई अर्थ हैं--मुरली, नली, धमनी, एक आधा मुहूर्त। 'नाडिन्धम' का अर्थ स्वर्णकार है (क्योंकि वह एक नली से फूंककर आग घोंकता है)। काठकसंहिता (२३३४ : सैषा वनस्पतिषु वाग्ववति या नाड्यां या तूणवे) से प्रकट होता है कि नाड़ी एक ऐसा नाय था जिससे स्वर निकलते थे।
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