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विभिन्न देशों में पांच या सात वारों, सप्ताह, दशाह आदि का व्यवहार ३२७ लिखा है कि यहूदी सैब्बाथ, मिस्री दिन-घण्टे एवं चाल्डिया के ज्योतिष ने वर्तमान सप्ताह की सृष्टि की है (पृ० ७६-७७)। सार्टन का मत है कि ग्रहीय दिनों का आरम्भ मिस्र एवं बेबिलोन में हुआ, यूनान में इसका पूर्वज्ञान नहीं था। आधुनिक यूरोपीय घण्टे बेबिलोनी घण्टों एवं मिस्री पंचांग की दिन-संख्या पर आधारित हैं। ई० पू० दूसरी शती तक यूरोप में तथा मध्य एशिया में आज के सप्ताह-दिनों के नामों आदि के विषय में कोई ज्ञान नहीं था । टाल्मी ने अपने टेट्राबिब्लास में सप्ताह का ज्योतिषीय-प्रयोग नहीं किया है। आज के दिनों के नाम ग्रहों पर आधारित हैं, यथा सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र एवं शनि नामक सात ग्रहों पर। कई कारणों से रविवार सप्ताह का प्रथम दिन है; एक कारण यह है कि उसी दिन सृष्टि का आरम्भ हुआ। जिस प्रकार दिनों का क्रम है, उसमें ग्रहों की दूरी, उनके गुरुत्व, प्रकाश एवं महत्ता का कोई समावेश नहीं है। याज्ञ० (१२२९३) ने ग्रहों का क्रम यों दिया है-सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु एवं केतु। यही बात विष्णुपुराण (१।१२।९२) में भी है।
__ ऐसा तर्क दिया जाता है कि सप्ताह-दिनों का क्रम मिस्त्रियों के २४ घण्टों वाली विधि पर आधारित है, जहाँ प्रत्येक दिन-भाग क्रम से एक ग्रह से शासित है। रविवार को प्रथम भाग पर सूर्य का, २१ वें भाग के उपरान्त २२वें भाग पर पुनः सूर्य का, २३ वें पर शुत्र का, २४ वें पर बुध का शासन माना जाता है तथा दूसरे दिन २५ वें भाग (या घण्टे) को सोमवार कहा जाता है। यदि यह व्यवस्था २४ घण्टों एवं घण्टा-शासकों पर आधारित है तो वही क्रम लम्बे ढंग से भी हो सकता है। २४ घण्टों के स्थान पर ६० भागों (घटिकाओं) में दिन को बाँटा जा सकता है। यदि हम चन्द्र से आरम्भ करें और एक घटी (या घटिका) एक ग्रह से समन्वित करें तो ५७वीं बटी चन्द्र की होगी, ५८वीं बुध की, ५९वीं शुक्र की, ६०वीं सूर्य की और सोमवार के उपरान्त दूसरा दिन होगा मंगलवार।
ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन कालों में किसी देश में (और आज भी ऐसा है) सप्ताह-दिनों में एक के उपरन्ति-एक दिनों में धार्मिक कृत्य नहीं होते थे। सप्ताह के दिनों के उद्भव एवं विकास के विषय पर मत-मतान्तर है। ऐसा कहा गया है कि भारतीय सप्ताह-दिन भारत के नहीं हैं, प्रत्युत वे चाल्डिया या यूनान के हैं। यहाँ हम यह देखेंगे साहित्यिक एवं शिलालेखीय प्रमाण हमें इस विषय में कितनी दूर ले जाते हैं। इस विषय में अत्यन्त प्राचीन शिलालेखीय प्रमाण है एरण का स्तभ-शिलालेख, जो बुधगुप्त (सन् ४८४ ई०) का है, जिसमें आषाढ़ शुक्ल द्वादशी एवं बृहस्पति का उल्लेख है। मान लिया जाय कि सप्ताह की धारणा अभारतीय है, तो इसके पूर्व कि वह सर्वसाधारण के जीवन में इस प्रकार समाहित हो जाय कि गुप्त सम्राट अपनी घोषणाओं में उसका प्रयोग करने लगें, तो यह मानना पड़ेगा कि ऐसा होने में कई शतियों की आवश्यकता पड़ेगी। - अब हम साहित्यिक प्रमाण लें। आर्यभटीय (दशगीतिका, श्लोक ३) में गुरुदिवस (बृहस्पतिवार) का उल्लेख है। बृहत्संहिता (१।४) में मंगल (क्षितितनय दिवस) का उल्लेख है। पंचसिद्धान्तिका (१८) में सोम
१०. काहो ढ मनुयुग श्ख गतास्ते च मनुयुग छना च। कल्पादेर्युगपावा ग च गुरुदिवसाच्च भारतात्पूर्वम् ॥ दशगीतिका, श्लोक ३। टीकाकार ने लिखा है : 'राज्यं चरतां युधिष्ठिरादीनायन्त्यो गुरुदिवसो भारतगुरुदिवसः। वापरावसानगत इत्यर्थः। तस्मिन् विवसे युधिष्ठिरावयो राज्यमुत्सृज्य महाप्रस्थानं गता इति प्रसिद्धिः। तस्माद्गुरुदिवसात् पूर्वकल्पादेरारभ्य गता मन्वादय इहोक्ताः। इस श्लोक का अर्थ है : 'ब्रह्मा के एक दिन में १४ मनु हैं तथा ७२ युग एक मन्वन्तर बनाते हैं। इस कल्प में भारतयुद्ध के बृहस्पतिवार तक ६ मनु, २७ युग, ३ युगपाद ध्यतीत हो चुके हैं।' 'काहः' का अर्थ है कस्य ब्रह्मणः अहः दिवसः; आर्यभट के अनुसार ८ १४; श्ख ७२ ष ७० एवं ख २, छ्ना २७ (छ ७ एवं न या ना २०); ग ३।
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