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मलमास का विवेचन
३२५ नहीं करना चाहिए। कुछ अपवाद भी हैं, यथा कुछ कर्म, जो अधिमास के पूर्व ही आरम्भ हो गये हों (यथा १२ दिनों वाला प्राजापत्य प्रायश्चित्त, एक मास वाला चान्द्रायण व्रत), अधिमास तक भी चलाये जा सकते हैं। यदि दुभिक्ष हो, वर्षा न हो रही हो तो उसके लिए कारीरी इष्टि अधिमास में भी करना मना नहीं है, क्योंकि ऐसा न करने से हानि हो जाने की सम्भावना रहती है। ये बातों कालनिर्णय-कारिकाओं (२१-२४) में वर्णित हैं।
कुछ बातें ऐसी हैं जो मलमास के लिए ही व्यवस्थित हैं, यथा प्रतिदिन या कम-से-कम एक दिन ब्राह्मणों को ३३ अपूपों (पूओं) का दान करना चाहिए। कुछ ऐसे कर्म हैं जो शुद्ध मासों में ही करणीय हैं, यथा वापी एवं तड़ाग (बावली एवं तलाब) खुदवाना, कूप बनवाना, यज्ञ कर्म, महादान एवं व्रत। कुछ ऐसे कर्म हैं जो अधिमास एवं शुद्ध मास, दोनों में किये जा सकते हैं, यथा गर्भ का कृत्य (पुंसवन जैसे संस्कार), ब्याज लेना, पारिश्रमिक देना, मास-श्राद्ध (अमावास्या पर), आह्निक दान, अन्त्येष्टि क्रिया, नव-श्राद्ध, मघा नक्षत्र की त्रयोदशी पर श्राद्ध, सोलह श्राद्ध, चान्द्र एवं सौर ग्रहणों पर स्नान, नित्य एवं नैमित्तिक कृत्य (हेमाद्रि, काल, पृ० ५२; समयप्रकाश, प०१४५)।
जिस प्रकार हमारे यहाँ १३ वें मास (मलमास) में धार्मिक कृत्य वजित हैं, पश्चिमी देशों में १३ वीं संख्या अभाग्यसूचक मानी जाती है, विशेषतः मेज पर १३ चीजों की संख्या।
भारतीय पंचांगों के पाँच अंगों में एक सप्ताह-दिन भी है। अतः दिनों एवं सप्ताह-दिनों पर संक्षेप में लिखना आवश्यक है। दोनों सूर्योदयों के बीच की कालावधि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अवधि मानी जाती है। यह सौर दिन है और लोक-दिन भी। किन्तु तिथि तो काल का चान्द्र विभाग है जिसका सौर दिन के विभिन्न दिग्-विभागों में अन्त होता है। 'दिन' शब्द के दो अर्थ हैं : (१) सूर्योदय से सूर्यास्त तक, (२) सूर्योदय से सूर्योदय तक। ऋग्वेद (६।९।१) में 'अहः' शब्द का दिन के कृष्ण भाग (रात्रि) एवं अर्जुन (चमकदार या श्वेत) भाग की ओर संकेत है (अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च वि वर्तेते रजसी वेद्याभिः)। ऋग्वेद में रात्रि' शब्द का प्रयोग उतना नहीं हुआ है जितना 'अहन' का, किन्तु 'दिन' का सामासिक प्रयोग अधिक हुआ है, यथा 'सुदिनत्व', 'सुदिन', 'मध्यन्दिन ।' 'अहोरात्र' (दिन-रात्रि) एक बार आया है (ऋ० १०।१९०।२)। पूर्वाह्न (दिन का प्रथम भाग) ऋ० (१०।३४.११) में आया है। दिन के तीनों भागों (प्रातः, संगव एवं मध्यन्दिन) का उल्लेख है (ऋ० ५।१७।३)। दिन के पाँच भागों में उपर्युक्त तीन के अतिरिक्त अन्य दो हैं अपराह्न एवं अस्तम्य, अस्तगमन या सायाह्न। ये पाँचों भाग शतपथब्राह्मण (२।३।२।९) में उल्लिखित हैं। 'प्रातः' एवं 'सायम्' ऋ० (५।७७४२, ८।२।२० एवं १०।१४६।३ एवं ४०) में आये हैं। कौटिल्य (१।१९), दक्ष एवं कात्यायन ने दिन एवं रात्रि को आठ भागों में बाँटा है। दिन एवं रात्रि के १५ मुहूर्तों का उल्लेख पहले ही हो चुका है।
दिन के आरम्भ के विषय में कई मत हैं। यहूदियों ने दिन का आरम्भ सायंकाल से माना है (जेनेसिस १५ एवं १।१३)। मिस्रवासियों ने सूर्योदय से सूर्यास्त तक के दिन को १२ भागों में बाँटा ; उनके घण्टे ऋतुओं पर निर्भर थे। बेबिलोनियों ने दिन का आरम्भ सूर्योदय से माना है और दिन तथा रात्रि को १२ भागों
८. काम्यारम्भं तत्समाप्तिं मलमासे विवर्जयेत्। आरब्धं मलमासात् प्राक् कृच्छं चान्द्रादिकं तु यत्। तत्समाप्यं सावनस्य मानस्यानतिलंघनात् ॥ आरम्भस्य समाप्तेश्च मध्ये स्याच्चन्मलिम्लचः। प्रवृत्तमखिलं काम्यं तदानुष्ठेयमेव तु॥ कारोर्यादि तु यत्काम्यं तस्यारम्भसमापने। कार्यकालविलम्मास्य प्रतीक्षाया असम्भवात् ॥ अनन्यगतिकं नित्यमग्निहोत्रादि न त्यजेत् । गत्यन्तरयुतं नित्यं सोमयागादि वर्जयेत् ॥का० नि० कारिका (२१-२४)।
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