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________________ ३२४ धर्मशास्त्र का इतिहास आया है, किन्तु पक्ष या दिनों के नाम लगातार (१ ते ३० तक) नहीं आये हैं। यह स्थिति, अर्थात् पक्षों एवं दिनों की वर्णन-रहितता, ९ वीं शती तक चली गयी। आजकल लोग सुदि, वदि या वद्य का प्रयोग करते हैं, उनमें प्रथम (अर्थात् सुदि) शुक्ल दिन (या दिवस) या शुद्ध दिन का छोटा रूप है तथा दूसरा (वदि) बहुल दिन या दिवस (व' या ब परिवर्तित होते रहते हैं) का छोटा रूप है। वद्य का अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता। यह नहीं समझ में आता कि ईसा के पूर्व एवं उपरान्त के बहुत-से शिलालेखों में 'पक्ष' शब्द का उल्लेख क्यों नहीं हुआ है, जब कि ब्राह्मणों एवं उपनिषदों जैसे प्राचीन ग्रन्थों में उसका उल्लेख हुआ है। दक्षिण भारत में मासों के नाम राशियों पर आधारित हैं,यथा मीन-मास, मेष-मास आदि। यही प्रयोग पाण्ड्य देश में भी प्रचलित था। अधिक मास कई नामों से विख्यात है --अधिमास, मलमास, मलिम्लुच, संसर्प, अंहस्पति या अंहसस्पति, पुरुषोत्तममास'। इनकी व्याख्या आवश्यक है। यह द्रष्टव्य है कि बहुत प्राचीन काल से अधिक मास निन्द्य ठहराये गये हैं। ऐत० ब्रा० (३।१) में आया है : 'देवों ने सोम की लता १३ वें मास में खरीदी, जो व्यक्ति इसे बेचता है वह पतित है, १३ वा मास फलदायक नहीं होता।' तै० सं० में १३ वाँ मास 'संसर्प' एवं 'अंहस्पति' (१।४।४।१ एवं ६।५।३।४) कहा गया है। ऋग्वेद में 'अंहस्' का तात्पर्य पाप से है। यह अतिरिक्त मास है, अतः अघिमास या अधिकमास नाम पड़ गया है। इसे मलमास इसलिए कहा जाता है कि मानो यह काल का मल है। अथर्ववेद (८।६।२) में 'मलिम्लुच' आया है, किन्तु इसका अर्थ स्पष्ट नहीं है। काठकसंहिता (३८।१४) में भी इसका उल्लेख है। पश्चात्कालीन साहित्य में 'मलिम्लुच' का अर्थ है 'चोर' । और देखिए ऋग्वेद (१०।१३६।२), वाज० सं० (२२।३०), शां० श्रौ० सू० (६।१२।१५) । मलमासतत्त्व (पृ० ७६८) में यह व्युत्पत्ति है : 'मली सन् म्लोचति गच्छतीति मलिम्लुचः' अर्थात् 'मलिन (गंदा ) होने पर यह आगे बढ़ जाता है।' 'संसर्प' एवं 'अंहसस्पति' शब्द वाज० सं० (२२।३० एवं ३१) में तथा 'अंहसस्पति' वाज० सं० (७।३१) में आये हैं। और देखिए तै० सं० (१।४।१४।१ एवं ६।५।३।४) । 'अंहसस्पति' का शाब्दिक अर्थ है 'पाप का स्वामी।' पश्चात्कालीन लेखकों ने 'संसर्प' एवं 'अंहसस्पति' में अन्तर व्यक्त किया है। जब एक वर्ष में दो अधिमास हों और एक क्षय मास हो तो दोनों अधिमासों में प्रथम संसर्प' कहा जाता है और यह विवाह को छोड़कर अन्य धार्मिक कृत्यों के लिए निन्द्य माना जाता है। अंहसस्पति क्षय मास तक सीमित है। कुछ पुराणों में (यथा पद्म०, ६।६४) अधिमास पुरुषोत्तम मास (विष्णु को पुरुषोत्तम कहा जाता है) कहा गया है और सम्भव है, अधिमास की निन्द्यता को कम करने के लिए ऐसा नाम दिया गया है। धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में अधिमास के विषय पर बहुत कुछ लिखा हुआ है। कुछ बातें यहाँ दी जा रही हैं। अग्नि० (१७५।२९-३०) में आया है--वैदिक अग्नियों को प्रज्वलित करना, मूर्ति-प्रतिष्ठा, यज्ञ, दान, व्रत, संकल्प के साथ वेद-पाठ, साँड़ छोड़ना (वृषोत्सर्ग), चूड़ाकरण, उपनयन, नामकरण, अभिषेक अधिमास में नहीं करना चाहिए। हेमाद्रि (काल, पृ० ३.६-६३) ने वजित एवं मान्य कृत्यों की लम्बी-लम्बी सूचियां दी हैं। और देखिए निर्णयसिन्धु (पृ० १०-१५) एवं धर्मसिन्धु (पृ. ५-७)। कुछ सामान्य व्यवस्थाओं की चर्चा की जा रही है। सामान्य नियम यह है कि मलमास में नित्य कर्मों एवं नैमित्तिक कर्मों (कुछ विशिष्ट अवसरों पर किये जाने वाले कर्मों) को करते रहना ही चाहिए, यथा सन्ध्या, पूजा, पंचमहायज्ञ (ब्रह्मयज्ञ, वैश्वदेव आदि), अग्नि में हवि डालना (अग्निहोत्र के रूप में), ग्रहण-स्नान (यद्यपि यह नैमित्तिक है), अन्त्येष्टि कर्म (नैमित्तिक) । यदि शास्त्र कहता है कि यह कृत्य (यथा सोम यज्ञ) नहीं करना चाहिए तो उसे अधिमास में स्थगित कर देना चाहिए यह भी सामान्य नियम है कि काम्य (नित्य नहीं, वह जिसे किसी फल की प्राप्ति के लिए किया जाता है) कम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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