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________________ मासों के प्रकार (अधिक, अमान्त, पूर्णिमान्त, सौर, सावन, नाक्षत्र आदि) लें-मान लीजिए भाद्रपद अमावास्या को कन्या संक्रान्ति है, उसके उपरान्त अधिक आश्विन के बाद शुद्ध आश्विन आता है, जिसकी प्रथम तिथि पर तुला संक्रान्ति है, इसके उपरान्त कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को वृश्चिक संक्रान्ति है, और मार्गशीर्ष-शुक्ल प्रतिपदा को धनु संक्रान्ति है और उसी मास की अमावास्या को मकर संक्रान्ति पड़ती है। ऐसी स्थिति में दो संक्रान्तियों (धनु एवं मकर) वाला मास क्षयमास होगा और तब पौष (मार्गशीर्ष एवं पौष से बने) का एक मास होगा। जब माघ अमावास्या को कुम्भ संक्रान्ति है तो फाल्गुन अधिक मास होगा और शुद्ध फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा को मीन संक्रान्ति होगी। इस प्रकार उस वर्ष में, जिसमें क्षयमास होता है, अब भी १३ मास होते हैं और उसके दिन ३९० से थोड़े कम होते हैं। ___चान्द्र तथा अन्य वर्षों के वर्णन के सिलसिले में हमने चान्द्र, सौर, सावन एवं नाक्षत्र मासों की ओर संकेत कर दिया है। जैसा कि कृत्यरत्नाकर में आया है (पृ०८०),धर्मशास्त्र में नाक्षत्र मास की आवश्यकता नहीं पड़ती, यह केवल ज्योतिष-शास्त्र में ही चलता है। पंचांग सामान्यतः प्रत्येक वर्ष के लिए बनते हैं। उनमें १२ (या १३, जब मलमास होता है) के दो पक्षों के पृथक् पृष्ठ होते हैं। भारतीय पंचांग के पांच महत्त्वपूर्ण भाग हैं; तिथि थ, सप्ताहदिन, नक्षत्र, योग एवं करण। मुहूर्तदर्शन (१।४४) के मत से इसमें राशियों के समावेश से छः तथा ग्रहों की स्थितियों के उल्लेख से सात भाग होते हैं। एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक एक वार (दिन) होता है। तिथियों एवं नक्षत्रों के विषय में पहले ही कहा जा चुका है। योग एवं करण के विषय में आगे लिखा जायगा। बारह महीनों एवं उनके दो-दो से गठित ६ ऋतुओं का उल्लेख बहुत प्राचीन है। देखिए तैत्तिरीय-संहिता (४।३।११॥ १),वाज० सं० (१३।२५)। मासों के वैदिक नाम हैं-मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नभस्, नभस्म, इष, ऊर्ज, सहस्, सहस्य, तपस् एवं तपस्य । ब्राह्मणों में नक्षत्रों से ज्ञापित चान्द्र मासों का उल्लेख है। इसी से कुछ लोग सौर एवं चान्द्र ऋतुओं का भी उल्लेख करते हैं। सौर मास मीन राशि या मेष राशि से आरम्भ होते हैं तथा चैत्र आदि (या शेष वाले) कहलाते हैं। पाणिनि' ने मासों की व्युत्पत्ति की है, यथा चित्रायुक्त पौर्णमासी से चैत्र, और स्पष्ट रूप से (४।२।२२) आग्रहायणी, फाल्गुनी, श्रवणा, कार्तिकी एवं चैत्री (४।२।२३) के नाम दिये हैं। 'पौर्णमासी पूर्णमास से व्युत्पन्न है (वार्तिक २, पा० ४।३।३५) । पुष्य नक्षत्र वाली पौर्णमासी तिथि ‘पौषी' कही गयी है (पा० ४।२।२ एवं ४।२।३१) । इस प्रकार विकास के तीन स्तर हैं : (१)२७ नक्षत्रों के रूप प्रकट हुए और उनके नाम वैदिक संहिताओं में ही प्रचलित हो गये; (२) इसके उपरान्त पौर्णमासी चैत्री पौर्णमासी कही गयी आदि, क्योंकि उस तिथि पर चन्द्र चित्रा नक्षत्र में था, आदि; (३) इसके उपरान्त मासों के नाम यों पड़े-चैत्र, वैशाख आदि, क्योंकि उनमें चैत्री या वैशाखी पौर्णमासी थी। यह सब पाणिनि के बहुत पहले प्रचलित हुआ। आगे चलकर सौर मास मधु, माधव आदि चैत्र, वैशाख आदि चान्द्र मासों से द्योतित होने लगे और समानार्थी हो गये। यह कब हुआ, कहना कठिन है। किन्तु ईसा के बहुत पहले ऐसा हुआ। पौर्णमासी के दिन चन्द्र भले ही चित्रा या श्रवण नक्षत्र में या उसके पास न हो किन्तु मास तब भी चैत्र या श्रावण कहलाता है। यह हमने देख लिया है कि प्राचीन ब्राह्मण-कालों में मास पूणिमान्त (पूर्णिमा से अन्त होने वाले) थे। यहाँ तक कि कनिष्क एवं हुविष्क जैसे उत्तर भारत के विदेशी शासकों के वृत्तान्तों में पूर्णिमान्त मासों का प्रयोग पाया जाता है, किन्तु कहीं-कहीं वहाँ मैसीडोनी नाम भी आये है। . __ ईसा पूर्व के शिलालेखों में मासों (ई० पूर्व दूसरी शती के मेनेण्डर के खरोष्ठी अभिलेख में कार्तिक चतुर्दशी का उल्लेख है) के नाम बहुत कम आये हैं। प्रचलित ढंग था ऋतु, तदुपरान्त ऋतु में नामरहित मास तथा दिवस का उल्लेख । कहीं-कहीं केवल ऋतु, पक्षों की संख्या एवं दिन के नाम आये हैं। कभी-कभी मास का नाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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