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________________ ३२२ धर्मशास्त्र का इतिहास कम है। इसका परिणाम यह है कि ८५ नाक्षत्र वर्षों में ८६ बार्हस्पत्य वर्ष हैं और ८५ वर्षों के उपरान्त एक वर्ष का क्षय हो जाता है। मासों का विषय अत्यन्त जटिल है। भारतीयों ने आदि काल से ही चान्द्र-सौर पंचांग का प्रयोग किया है और यही बात बेबिलोन, चाल्डिया के लोगों, यहूदियों एवं चीनियों के बीच पायी गयी है। अतः सभी ने मलमास का सहारा लिया है। किन्तु भारतीयों में क्षय मास बहुत विरल था, जिसका अन्य देशों में अभाव था। यह अन्तर सूर्य एवं चन्द्र की गतियों एवं स्थानों की गणना के विभिन्न ढंगों के कारण उपस्थित हुआ। अधिक मास की अनिवार्यता पर कुछ शब्द यहाँ दिये जाते हैं। सौर वर्ष चान्द्र वर्ष से ११ दिनों से थोड़ा अधिक बड़ा होता है। यह अधिकता लगभग ३२ मासों में एक चान्द्र मास की होती है बेबिलोनियों के १९ वर्षों के एक वृत्त ७ मलमास (अर्थात् ) सब मिला कर २३५ चान्द्र मास) थे। इसी वृत्त को यूनान में अथेनियानिवासी मेटान के नाम पर मेटानिक साइकिल (वृत्त) कहा गया। इसी के आधार पर यहूदी एवं ईसाई पंचांग बने, विशेषतः ईस्टर से सम्बन्धित । वेदांग-ज्योतिष से प्रकट है कि एक युग (पांच वर्षों के वृत्त) में दो मलमास होते थे, एक था ढाई वर्षों के उपरान्त, दूसरा आषाढ़ और दूसरा युग के अन्त में दूसरा पौष। यही बात कौटिल्य में है। पुराणों में मलमास की विविध अवधियों का उल्लेख है। एक अपेक्षाकृत अधिक निश्चित नियम यह है कि वह चान्द्र-मास, जिसमें संक्रान्ति नहीं होती, अधिक कहलाता है और आगे के मास के नाम से, जो शुद्ध या निज या प्राकृत कहलाता है, द्योतित होता है। यदि एक सौर मास में दो अमावास्या पड़ती हों तब मलमास होता है। चान्द्र मास में जब दो संक्रान्तियाँ होती हैं तो दो मास हो जाते हैं, जिनमें प्रथम स्वीकृत होता है और दूसरा छोड़ दिया जाता है। यह दूसरा क्षयमास कहलाता है। इसका तात्पर्य यह है कि जब एक मास में दो संक्रान्तियाँ होती हैं तो क्षयमास होता है। वह चान्द्र मास जिसमें सूर्य मेष राशि में प्रविष्ट होता है, चैत्र तथा जिसमें वह वृषभ राशि में प्रवेश करता है वह वैशाख कहलाता है। ___अधिक एवं क्षय मासों के विषय में कुछ और कहना आवश्यक है। फाल्गुन से आश्विन तक के सात मास केवल अधिक हो सकते हैं, क्षय नहीं। कार्तिक एवं मार्गशीर्ष अधिक एवं क्षय दोनों हो सकते हैं, किन्तु ऐसा बहुत कम ही होता है। माघ अधिक हो सकता है, किन्तु यह अधिक या क्षय कभी नहीं हुआ है। (देखिए केतकर का ग्रन्थ, इण्डियन एण्ड फारेन क्रोनोलाजी, पृ०४०)। किन्तु शुद्धिकौमदी (१० २७२) में आया है कि शक संवत् १३९७ में माघ मास का क्षय हुआ था। मलमासतत्त्व (पृ० ७७४) में उद्धरण आया है कि माघ मलमास हो सकता है, किन्तु पौष नहीं। केतकर (प०४०) के मत से पौष के अधिक मास होने की सम्भावना नहीं है किन्तु वह भार्गशीर्ष की अपेक्षा क्षय मास होने की अधिक सम्भावना रखता है। क्षय मास सामान्यतः अधिक मास के पूर्व या उपरान्त (तुरत उपरान्त नहीं) होता है, अतः जब कुछ वर्षों में क्षय मास होता है तो दो अधिक मास पाये जाते हैं। इस विषय में और देखिए कैलेण्डर रिफार्म कमिटी रिपोर्ट, पृ० २४६-२५२। शान्तिपर्व (३०११४६-४७) ने संवत्सरों, मासों, पक्षों एवं दिवसों के क्षय' का उल्लेख किया है। जब क्षयमास होता है तो इसके पूर्व का अधिक मास अन्य साधारण मासों के समान पवित्र रहता है, अर्थात् उसमें धार्मिक कृत्य करना मना नहीं है, तथा वह अधिक मास जो क्षयमास के उपरान्त आता है, धार्मिक कृत्यों के लिए वजित घोषित किया गया है। उदाहरण से इन दोनों को समझ लिया जाय। मान लीजिए चैत्र अमावास्या को मेष संक्रान्ति है, और अमावास्या के आगे की तिथि से दूसरी अमावास्या (जो वैशाख है) तक कोई संक्रान्ति नहीं है, और तब उसके उपरान्त प्रथम तिथि में वृषभ संक्रान्ति है, तो ऐसी स्थिति में वह मास जिसमें संक्रान्ति नहीं है अधिक वैशाख कहा जायगा, और वह मास जिसमें वृषभ संक्रान्ति पड़ती है शुद्ध वैशाख होगा। अब क्षय मास का उदाहरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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