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भारत में प्रचलित विभिन्न संवत् संवत् एक ही कहे गये हैं, क्योंकि दोनों पूर्वी राजस्थान एवं पश्चिमी मालवा में व्यवहृत हुए हैं। यह द्रष्टव्य है कि कृत के २८२ एवं २९५ वर्ष तो मिलते हैं किन्तु मालव संवत् के इतने प्राचीन शिलालेख नहीं मिलते। यह संभव है कि कृत नाम पुराना है और जब मालवों ने उसे अपना लिया तो वह 'मालव- गणाम्नात' या 'मालव-गणस्थिति' के नाम से पुकारा जाने लगा। किन्तु यह कहा जा सकता है कि यदि कृत एवं मालव दोनों बाद में आने वाले विक्रम संवत् की ओर ही संकेत करते हैं, तो दोनों एक साथ ही लगभग एक सौ वर्षों तक प्रयोग में आते रहे, जैसे कि हमें ४८० कृत वर्ष एवं ४६१ मालव वर्ष प्राप्त होते हैं । यह मानना कठिन है कि कृत संवत् का प्रयोग कृतयुग के आरम्भ से हुआ। यह सम्भव है कि 'कृत' का वही अर्थ है जो 'सिद्ध' का है (यथा 'कृतान्त' का अर्थ है ' सिद्धान्त' ) और यह संकेत करता है कि यह कुछ लोगों की सहमति से प्रतिष्ठापित हुआ है। ८ वीं एवं ९ वीं शती से विक्रम संवत् का नाम विशिष्ट रूप से मिलता है। इतना ही नहीं, संस्कृत के ज्योतिःशास्त्रीय ग्रन्थों में यह शक संवत् से भिन्नता प्रदर्शित करने के हेतु सामान्यतः केवल संवत् नाम से उल्लिखित है । चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ के वेडरावे शिलालेख से पता चलता है कि राजा ने शक संवत् के स्थान पर चालुक्य विक्रम संवत् चलाया, जिसका प्रथम वर्ष था १०७६-७७ ई० ।
लगभग ५०० ई० के उपरान्त संस्कृत में लिखित सभी ज्योतिःशास्त्रीय ग्रन्थ शक संवत् का प्रयोग करते पाये गये हैं। इस संवत् का यह नाम क्यों पड़ा, इस विषय में कई एक मत हैं। इसे कुषाण राजा कनिष्क ने चलाया या किसी अन्य ने, अभी तक कुछ भी अन्तिम रूप से नहीं कहा जा सका है। यह एक ऐसी समस्या है। जो भारतीय इतिहास एवं काल-निर्णय की अत्यन्त कठिन समस्याओं में परिगणित होती है । वराहमिहिर ने इसे शक काल ( पंचसिद्धान्तिका एवं बृहत्संहिता १३३३ ) तथा शकेन्द्रकाल या शक- भूपकाल (बृ० सं० ८ २०-२१ ) कहा है। उत्पल (लगभग ९६६ ई०) ने बू ० सं० (८/२० ) की व्याख्या में कहा है कि जब विक्रमादित्य द्वारा शक राजा मारा गया तो यह संवत् चला। इसके वर्ष चान्द्र सौर- गणना के लिए चैत्र से एवं सौर गणना के लिए मेष से आरम्भ होते थे । इसके वर्ष सामान्यतः बीते हुए हैं और सन् ७८ ई० के वासन्तिक विषुव से यह आरम्भ किया गया है । सब से प्राचीन शिलालेख, जिसमें स्पष्ट रूप से शक संवत् का उल्लेख है, चालुक्य वल्लभेश्वर का है, जिसकी तिथि है ४६५ शक संवत् ( अर्थात् ५४३ ई० ) । क्षत्रप राजाओं के शिलालेखों में वर्षों की संख्या व्यक्त है, किन्तु संवत् का नाम नहीं है, किन्तु वे संख्याएँ शक काल की द्योतक हैं, जैसा कि सामान्यतः लोगों का मत है। कुछ लोगों ने कुषाण राजा कनिष्क को शक संवत् का प्रतिष्ठापक माना है । पश्चात्कालीन, मध्यवर्ती एवं वर्तमान कालों में (ज्योतिर्विदाभरण में भी यही बात है) शक संवत् का नाम शालिवाहन है । किन्तु संवत् के रूप में शालिवाहन रूप १३ वीं या १४वीं शती के शिलालेखों में आया है। यह संभव है कि सातवाहन नाम (हर्षचरित में गाथा सप्तशती के प्रणेता के रूप में वर्णित ) शालवाहन बना और पुनः शालिवाहन के रूप में आ गया। देखिए कैलेण्डर रिफार्म कमिटी रिपोर्ट (१० २४४-२५६ )।
कश्मीर में प्रयुक्त सप्तर्षि संवत् एक अन्य संवत् है जो लौकिक संवत् के नाम से भी प्रसिद्ध है । राजतरंगिणी ( १/५२ ) के अनुसार लौकिक वर्ष २४ गत शक संवत् १०७० के बराबर है। इस संवत् के उपयोग में सामान्यतः शताब्दियाँ नहीं दी हुई हैं। यह चान्द्र-सौर संवत् है और चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा को ई० पू० अप्रैल ३०७६ में आरम्भ हुआ। बृ० सं० (१३।३-४ ) ने एक परम्परा का उल्लेख किया है कि सप्तर्षि एक नक्षत्र में सौ वर्षों तक रहते हैं और जब युधिष्ठिर राज्य कर रहे थे तो वे मेष राशि में थे । सम्भवतः यही सौ वर्षों वाले वृत्तों का उद्गम है । बहुत-से अन्य संवत् भी थे, यथा वर्धमान, बुद्ध-निर्वाण, गुप्त, चेदि, हर्ष, लक्ष्मणसेन ( बंगाल में ), कोल्लम या परशुराम (मलावार में ), जो किसी समय ( कम-से-कम लौकिक जीवन में) बहुत प्रचलित थे । इनका उल्लेख यहाँ नहीं होगा ।
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