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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास ३१८ के ३६०० वर्ष व्यतीत हो चुके थे ( अर्थात् वे ४७६ ई० में उत्पन्न हुए)। एक चौल वृत्तान्तालेखन कलियुग संवत् ४०४४ (९४३ ई०) का है। देखिए जे० आर० ए० एस० (१९११, पृ० ६८९-६९४), जहाँ बहुत से शिलालेखों में उल्लिखित कलियुग संवत् का विवेचन किया गया है। मध्यकाल के भारतीय ज्योतिषियों ने माना है। कि कलियुग एवं कल्प के आरम्भ में सभी ग्रह ( सूर्य एवं चन्द्र समेत ) चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को रविवार के सूर्योदय के समय एक साथ एकत्र थे । किन्तु बर्गेस एवं डा० साहा जैसे आधुनिक लेखक इस कथन को केवल कल्पनात्मक मानते हैं । किन्तु प्राचीन सिद्धान्त - लेखकों के इस कथन को केवल कल्पना मान लेना ठीक नहीं है। यह सम्भव है कि सिद्धान्त लेखकों के समक्ष कोई अति प्राचीन परम्परा रही हो ।" प्रत्येक धार्मिक कृत्य के संकल्प में कृत्यकर्ता को काल के बड़े भागों एवं विभागों को श्वेतवाराह कल्प के आरम्भ से कहना पड़ता है, यथा वैवस्वत मन्वन्तर कलियुग, कलियुग का प्रथम चरण, भारत में कृत्य करने की भौगोलिक स्थिति, सूर्य, बृहस्पति एवं अन्य ग्रहों वाली राशियों के नाम, वर्ष का नाम, मास, पक्ष, तिथि, नक्षत्र, योग एवं करण के नाम । देवल का कथन है कि यदि कृत्यकर्ता मास, पक्ष, तिथि, ( कृत्य के) अवसर का उल्लेख नहीं करता तो वह कृत्य का फल नहीं प्राप्त करेगा ( शान्तिमयूख, पृ० २ ) । यह है भारतीयों के धार्मिक जीवन में संतों वर्षों एवं इनके भागों एवं विभागों की महत्ता । अतः प्रत्येक भारतीय (हिन्दू) के लिए पंचांग अनिवार्य है । विक्रम संवत् के उद्भव एवं प्रयोग के विषय में कुछ कहना कठिन है। यही बात शक संवत् के विषय में भी है। किसी विक्रमादित्य राजा के विषय में, जो ई० पू० ५७ में था, सन्देह प्रकट किये गये हैं । इस संवत् का आरम्भ गुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से ( नवम्बर, ई० पू० ५८ ) है और उत्तरी भारत में चैत्र कृष्ण प्रतिपदा ( अप्रैल, ई० पू० ५८ ) से । बीता हुआ विक्रम वर्ष बराबर है ईसवी सन् + ५७। कुछ आरम्भिक शिलालेखों में ये वर्ष कृत के नाम से आये हैं (यथा नन्द-यूप शिलालेख में २८२ कृत वर्ष ; तीन यूपों के मौखरी शिलालेखों में २९५ कृत वर्ष, विजयगढ़ स्तम्भ - अभिलेख में ४२८; मन्दसौर में ४६१ तथा गदाधर में ४८० ) । विद्वानों ने सामान्यतः कृत संवत् को विक्रम संवत् का पूर्ववर्ती माना है। किन्तु 'कृत' शब्द के प्रयोग की व्याख्या सन्तोषजनक नहीं हो सकी है। कुछ शिलालेखों में मालव- गण का संवत् उल्लिखित है, यथा नरवर्मा का मन्दसौर शिलालेख । कृत एवं मालव ४. लंकागदाच्च भानोस्तस्यैव वारे प्रथमं बभूव । मषोः सितादेविन मासवर्धयुगाविकानां युगपत् प्रवृत्तिः ॥ ग्रहगणित, मध्यमाधिकार, श्लोक १५ ( भास्कराचार्य का ) ; चैत्रसितादेवयाद् भानोदिन मासवर्षयुगकल्पाः । सृष्ट्यादौ लंकायां समं प्रवृत्ता दिनेऽर्कस्य ॥ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त ( ११४ ) । ५. देखिए एपिफिया इण्डिका ( जिल्द ८, पृ० २६१) । एपि० इण्डिका ( जिल्द २८, ५०६३) में अर्केश्वर देव के कई पट्ट लेख हैं जिनमें युगाब्द ४२४८ ( कलियुग संवत् ) का उल्लेख है, जो ६ फरवरी १९४८ ई० का है। और देखिए 'ऐनल्स आव साइंस' (जिल्द ८, संख्या ३, १९५२, पृ० २२१-२२८) जहाँ प्रो० नेउगेबावर एवं डा० ओ० रिचम्ड्ट का 'हिन्दू ऐस्ट्रोनोमी एट न्यू मिस्टर इन १४२८' नामक लेख है, जिसमें इंग्लैण्ड के न्यूमिंस्टर स्थान में लिखित एक अज्ञात लेखक के एक प्रबन्ध की ओर संकेत किया गया है, जिसमें १४२८ वर्ष एवं मिस्टर के अक्षांश के लिए ज्योतिःशास्त्रीय गणनाएँ की गयी हैं । उस प्रबन्ध में कतिपय अरबी लेखकों के उद्धरण हैं, जिनमें एक 'ओमर' (या उमर, जो ८१५ ई० में मरा) का उल्लेख है, और प्रबन्ध में आया है कि एल्फैजो ने अवतार के ३१०२ वर्ष पूर्व १६ फरवरी को बाढ़ (फ्लड) के वर्ष का आरम्भ किया; यह तिथि स्पष्ट रूप से कलियुग संवत् (जिसे भारतीय ज्योतिषाचार्यों ने प्रयुक्त किया है) के आरम्भ से सर्वथा मिलती-जुलती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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