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भारत में प्रचलित विभिन्न संवत् कलि संवत्
३१७ यही बात व्यवहाररूप से कुषाणों एवं सातवाहनों के कालों तक चलती गयी, अर्थात् शासन-वर्ष ही प्रयुक्त होते रहे।
सैकड़ों वर्षों तक भारत में विभिन्न प्रकार के संवत् प्रयोग में आते रहे, इससे कालनिर्णय एवं इतिहास में बड़े-बड़े भ्रम उपस्थित हो गये हैं। संवतों की सूचियों के विषय में देखिए कनिंघम कृत 'इण्डिएन एराज'; स्वामिकन्न पिल्लई कृत 'इण्डिएन एफेमेरिस' (जिल्द १, भाग १, पृ० ५३-५५); बी० बी० केतकर कृत 'इण्डिएन एण्ड फारेन क्रोनोलाजी' (पृ० १७१-१७२); पी० सी० सेनगुप्त कृत 'ऐश्यण्ट इण्डिएन एराज' (पृ. २२२२३८ ); डा० मेघनाथ साहा का लेख 'साइंस एवं कल्चर' (१९५२, कलकत्ता, पृ० ११६) तथा कलेण्डर रिफार्म कमिटी (१९५५) । यहाँ हम कुछ ही संवतों की चर्वा करेंगे। अल्बरूनी (सचौ, जिल्द २, पृ० ५) ने पाँच संवतों के नाम दिये हैं , यथा श्रीहर्ष, विक्रमादित्य, शक, वल्लभ एवं गुप्त संवत्। पहले के विषय में उसके दो विभिन्न कथन हैं और प्रश्न अनिर्णीत छोड़ दिया गया है।
प्राचीन काल में भी कलियुग के आरम्भ के विषय में विभिन्न मत रहे हैं। आधुनिक मत है कि कलियुग ई० पू० ३१०२ में आरम्भ हुआ। इस विषय में चार प्रमुख दृष्टिकोण हैं--(१) युधिष्ठिर ने जब राज्य-सिंहासनारोहण किया; (२) यह ३६ वर्ष उपरान्त आरम्भ हुआ जब कि युधिष्ठिर ने अर्जुन के पौत्र परीक्षित को राजा बनाया; (३) पुराणों के अनुसार कृष्ण के देहावसान के उपरान्त यह आरम्भ हुआ (विष्णु० ४।२४। १०८-११३); (४) वराहमिहिर के मत से युधिष्ठिरसंवत् का आरम्भ शक-संवत् के २४२६ वर्ष पहले हुआ, अर्थात्, दूसरे मत के अनुसार, कलियुग के ६५३ वर्षों के उपरान्त । ऐहोल शिलालेख ने सम्भवतः दूसरे मत का अनुसरण किया है; क्योंकि उसमें शक संवत् ५५६ से पूर्व ३७३५ कलियुग संवत् माना गया है। कलियुग संवत् के विषय में सब से प्राचीन संकेत आर्यभट द्वारा दिया गया है। उन्होंने कहा है कि जब वे २३ वर्ष के थे तब कलियुग
पृथगधिमासक इति कालः । अर्थशास्त्र (११।६, पृ०६०)। फ्लोट, शामशास्त्री आदि ने इस वचन को कई ढंग से अनूदित किया है। विभिन्न अर्थों का कारण है 'व्युष्ट' शब्द का प्रयोग, जिसका शाब्दिक अर्थ है 'प्रातःकाल या प्रकाश' और यहाँ तात्पर्य है 'वर्ष का प्रथम दिन, जो शुभ माना जाता है।' देखिए पाणिनि (५।११९६-९७) : तत्र च दीयते कार्य भववत् । व्युष्टादिभ्यो। प्रस्तुत लेखक इस कथन का अनुवाद यों करता है : 'राजवर्ष, मास, पक्ष, दिन, शुभ (वर्ष का प्रथम दिन),तीन ऋतुओं, यथा वर्षा, हेमन्त, ग्रीष्म के तीसरे एवं सातवें पक्ष में एक दिन (३० में) कम है, अन्य पक्ष पूर्ण हैं (मास में पूर्ण ३० दिन हैं), मलमास (अधिक मास) पृथक् (कालावषि) है। ये सभी वे काल हैं (जिन्हें मालगुजारी संग्रह करने वाला ध्यान में रखेगा)।' प्राचीन कालों में वर्ष में ६ ऋतुएँ थों, १२ मास थे और ये प्रत्येक मास में ३० दिन। अर्थशास्त्र का यहाँ कथन है कि छः पक्ष ऐसे हैं जिनमें प्रत्येक में १४ दिन हैं, अतः चान्द्र वर्ष (१४४६।-१५४६+३०४६=३५४) ३५४ दिनों का होगा। इसे सौर वर्ष के साथ चलाने के लिए अधिक मास का समावेश किया गया।
३. त्रिंशत्सु त्रिसहस्रेषु भारतावाहवादितः। सप्ताब्दशतयुक्तेषु गतेष्वब्देषु पञ्चसु ॥पञ्चाशत्सु कलौ काले षट्सु पञ्चशतासु च। समासु समतोतासु शकानामपि भूभुजाम् ॥ एपिनफिया इण्डिका (जिल्द ४, पृ०७)। यहाँ पर स्पष्ट रूप से कलियुग का आरम्भ महाभारत युद्ध के उपरान्त माना गया है। पश्चात्कालीन ज्योतिःशास्त्रीय ग्रन्थों के अनुसार कलियुग संवत् के ३७१९ वर्षों के उपरान्त शक संवत् का आरम्भ हुआ। देखिए 'याताः षण्मनवो युगानि भमितान्यन्ययुगांघ्रित्रयं नन्दाद्रीन्दुगुणास्तथा शकनृपस्यान्ते कलेवत्सराः॥ सिद्धान्तशिरोमणि (११२८)। 'नन्दाद्रीन्दुगुणा' ३१७९ के बराबर है (नन्द =९, अद्रि=७, इन्दु= १, गुण-३)।
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