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________________ ३१६ धर्मशास्त्र का इतिहास आरम्भ भली भाँति व्याख्यायित होना चाहिए, और उनमें ऋतुओं एवं किसी संवत् का प्रयोग अत्यन्त आवश्यक है। पंचांग की आवश्यकताएँ हैं । उपर्युक्त दो ज्योतिःशास्त्रीय अवधियों की अतुल्यता ही पंचांगों की जटिलता की द्योतक है। मुसलमानों ने अयनवृत्तीय वर्ष के विस्तार पर ध्यान न देकर तथा चन्द्र को काल का मापक मान कर इस जटिलता का समाधान कर लिया। उनका वर्ष विशुद्ध चान्द्र वर्ष है। इसका परिणाम यह हुआ कि मुसलमानी वर्ष केवल ३५४ दिनों का हो गया और लगभग ३३ वर्षों में उनके सभी उत्सव वर्ष के सभी मासों में घूम जाते हैं । दूसरी ओर प्राचीन मिस्र वालों ने चन्द्र को काल के मापक रूप में नहीं माना और उनके वर्ष में ३६५ दिन थे (३० दिनों के १२ मास एवं ५ अतिरिक्त दिन ) । उनके पुरोहित-गण ३००० वर्षों तक यही विधि मानते रहे; उनके यहाँ अतिरिक्त वर्ष या मलमास नहीं थे । ऋग्वेद (१।२५।८) में भी अतिरिक्त मास का उल्लेख है, किन्तु यह किस प्रकार व्यवस्थित था, हमें ज्ञात नहीं। हमें विदित है कि वेदांगज्योतिष ने पाँच वर्षों में दो मास जोड़ दिये हैं। प्राचीन कालों में मासों की गणना चन्द्र से एवं वर्षों की सूर्य से होती थी । लोग पहले से सही जान . लेना चाहते थे कि व्रतों एवं उत्सवों के लिए पूर्णिमा या परिवा ( प्रतिपदा) कब पड़ेगी, कब वर्षा होगी, शरद कब आयेगी और कब बीज डाले जायें और अन्न के पौधे काटे जायेंगे। यज्ञों का सम्पादन वसन्त ऋतु में या अन्य ऋतुओं में, प्रथम तिथि या पूर्णिमा को होता था । चान्द्र वर्ष के ३५४ दिन सौर वर्ष के दिनों से ११ कम पड़ते थे । अतः यदि केवल चान्द्र वर्ष की अभियोजना हो तो ऋतुओं को पीछे हटाना पड़ जायगा । इसी लिए कई देशों में अधिक मास की अभियोजना निश्चित हुई। यूनानियों में आक्टाएटेरिस (आठ वर्षों के वृत्त) की योजना थी, जिसमें ९९ मास थे जिनमें तीसरा, पाँचवाँ एवं आठवाँ मलमास थे । इसके उपरान्त १९ वर्षों का मेटानिक वृत्त बना, जिसमें ७ अधिक मास (१९१२+७= २३५) निर्धारित हुए। ओल्मस्टीड ( अमेरिकन जर्नल आव सेमेटिक लैंग्वेजेज़, जिल्द ५५, १९३८, पृ० ११६ ) का कथन है कि बेबिलोन में मलमास - वृत्त आठ वर्षों का था, जिसे यूनानियों ने अपनाया । फादिरंघम ( जर्नल व हेलेनिस्टिक स्टडीज, जिल्द ३९, पृ० १७९) का कहना है कि बेबिलोनी मलमास-पद्धति ई० पू० ५२८ तक असंयमित थी तथा यूनान में ई० पू० पाँचवीं एवं चौथी शतियों में अव्यafted at | देखिए कैलेण्डर रिफार्म कमिटी की रिपोर्ट, पृ० १७५-१७६ । भारत में जन्म पत्रिकाओं के उपयोग के लिए संवतों का प्रयोग लगभग २००० वर्षो से अधिक प्राचीन नहीं है। संवत् का लगातार प्रयोग हिन्दू-सिथियनों द्वारा, जिन्होंने आधुनिक अफगानिस्तान एवं उत्तर-पश्चिमी भारत में लगभग ई० पू० १०० एवं १०० ई० के बीच शासन किया, उनके वृत्तान्तों में हुआ । यह बात केवल भारत नहीं पायी गयी, प्रत्युत मिस्र, बेबिलोन, यूनान एवं रोम में संवत् का लगातार प्रयोग बहुत आगे चलकर शुरू हुआ । ज्योतिर्विदाभरण में (जो पश्चात्कालीन रचना है, जिसमें यह आया है कि यह गतलि ३०६८ अर्थात् ईसा संवत् से ३३ वर्ष पूर्व में प्रणीत हुआ ) कलियुग के ६ व्यक्तियों के नाम आये हैं, जिन्होंने संवत् चलाये थे, यथा - युधिष्ठिर, विक्रम, शालिवाहन, विजयाभिनन्दन, नागार्जुन एवं कल्की, जो क्रम से ३०४४, १३५, १८०००, १००००, ४००००० एवं ८२९ वर्षों तक चलते रहे। प्राचीन देशों में संवत् का लगातार प्रयोग नहीं था, केवल शासन वर्ष ही प्रयुक्त होते थे । अशोक के आदेश - लेखनों में केवल शासन वर्ष ही प्रयुक्त हैं। कौटिल्य (अर्थशास्त्र, २२६, पृ० ६०) ने मालगुजारी संग्रह करने वाले के कार्य की व्यवस्था करने के सिलसिले में कालों की ओर भी संकेत किया है, जिनसे मालगुजारी एकत्र करने वाले सम्बन्धित थे, यथा राजवर्ष, मास, पक्ष, दिन आदि । २. राजवर्ष मासाः पक्षो दिवसश्च व्युष्टं वर्षाहेमन्तग्रीष्माणां तृतीयसप्तमा विवतोनाः पक्षाः शेषाः पूर्णाः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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