SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विश्व में विविष पंचांगों का प्रचलन और उनकी रचना के आधार ३१५ केतकर कृत ज्योतिर्गणितम्, केतकी, वैजयन्ती, ग्रहगणित, एवं एण्डिएन एण्ड फारेन क्रानोलाजी ; जैकोबी के लेख (एपिप्रैफ़िया इण्डिका, जिल्द १, पृ० ४०३-४६०; जिल्द २, पृ० ४८७-४९८; जिल्द १२, पृ० ४७, वही, पृ० १५८); सेवेल के लेख (ए० इ०, जिल्द १४, पृ० १, २४ ; जिल्द १५, पृ० १५९; जिल्द १६, पृ० १०० -२२१; जिल्द १७, ३, २०५; इण्डिएन हिस्टारिकल क्वार्टरली, जिल्द ४, पृ० ४८३-५११, जिल्द १०, पृ० ३३२३३६); नाटिकल एल्मैनेक (१९३५); प्रो० सेनगप्त कृत 'ऐश्येण्ट इण्डिएन क्रोनोलाजी' (१९४७, कलकत्ता विश्वविद्यालय): डा० के० एल० दफ्तरी कृतकरण-कल्पलता' (संस्कृत में): 'भारतीय ज्य (मराठी में): डा. मेघनाथ साहा का लेख 'रिफार्म आव दि इण्डिएन कैलेण्डर' (साइंस एण्ड कल्चर, कलकत्ता, १९५२, पृ० ५७-६८, १०९-१२३); रिपोर्ट आव दि कैलेण्डर रिफार्म कमिटी, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित, १९५५ (बहुत लाभदायक ग्रन्थ)। सभी देशों में काल की मौलिक अवधियाँ एक-सी हैं, यथा दिन, मास, वर्ष (जिसमें ऋतुएँ भी हैं)। वर्ष युगों अथवा कालों के अंश या भाग होते हैं जो काल-क्रमों एवं इतिहास के लिए बड़े महत्त्व के हैं। यद्यपि काल की अवधियाँ, समान हैं तथापि मासों एवं वर्षों की व्यवस्था में दिनों के क्रम में अन्तर पाया जाता है, दिनों की अवधियों (उपविभागों), दिन के आरम्भ-काल, ऋतुओं एवं मासों में वर्षों का विभाजन, प्रत्येक मास एवं वर्ष में दिनों की संख्या तथा विभिन्न प्रकार के मासों में अन्तर पाया जाता है। काल के बड़े मापक हैं सूर्य एवं चन्द्र । धुरी पर पृथिवी के घूमने से दिन बनते हैं। मास प्रमुखतः चान्द्र अवस्थिति है तथा वर्ष सूर्य की प्रत्यक्ष गति है (किन्तु वास्तव में यह सूर्य के चतुर्दिक् पृथिवी का भ्रमण है)। अयनवृत्तीय वर्ष सूर्य के वासन्तिक विषुव से अग्रिम विषुव तक का काल है। अयनवृत्तीय (ट्रापिकल) वर्ष नक्षत्रीय वर्ष (एक ही अचल तारे पर सूर्य की दो लगातार अर्थात् एक के उपरान्त एक पहुँच के बीच का काल) अर्यात साइडरीयल वर्ष से अपेक्षाकृत छोटा है और यह कमी २० मिनटों की है, क्योंकि वासन्तिक विषुव का बिन्दु प्रति वर्ष ५० सेकण्ड के रूप में पश्चिम ओर घूम जाता है। आधुनिक पंचांग में संवत् का वर्ष, मास, मास-दिन तथा अन्य धार्मिक एवं सामाजिक रुचियों की बातें पायी जाती हैं। मनुष्य को युग, वर्ष, मास के विस्तारों का ज्ञान बहुत बाद को प्राप्त हुआ। चान्द्र मास २९३ दिन से कुछ अधिक तथा अयनवृत्तीय वर्ष ३६५३ दिनों से कुछ कम होता है। ये विषभ अवधियाँ हैं। साधारण जीवन एवं पंचांगों के लिए पूर्ण (सम-विभक्त) दिनों की आवश्यकता होती है। इतना ही नहीं, वर्ष एवं मास का १. पृथिवी की दो गतियों (अपनी धुरी पर इसकी प्रतिदिन को गति या चक्कर एवं सूर्य के चतुर्दिक इसके वार्षिक चक्कर) के अतिरिक्त एक तीसरी गति भी है जिसे लोग भली भांति नहीं जानते हैं। पृथिवी पूर्णतः गोलक नहीं है, इसका निरक्षीय (भूमध्य रेखीय) व्यास इसके ध्रुवीय व्यास से बड़ा है। इसका फल यह होता है कि भूमध्य रेखा (निरक्ष) पर पदार्थ-समूह उभरा हुआ है जो उस स्थिति से अधिक है जब कि पृथिवी पूर्णरूपेण गोल होती। पृथिवी को धुरी पर एक हलको सूच्याकार चक्कर में घूमने वाली गति है जो लटू के समान है और वह २५,८०० वर्षों में एक चक्कर लगा पाती है। यह वार्षिक हटना ५०".२ सेकण्ड का है, जो सूर्य एवं चन्द्र के निरक्षीय उभार पर खिचाव के कारण होता है। इसी से स्थिर तारे, यहाँ तक कि ध्रुव तारा, एक शती के उपरान्त दूसरी शती या दूसरे काल में अपने स्थानों से परिवर्तित दृष्टिगोचर होते हैं। (नार्मन लॉकर एवं हिक्की) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy