________________
३१४
धर्मशास्त्र का इतिहास
व्रत एवं धार्मिक कृत्य, जो तिथियों पर आधारित हैं, चान्द्रमान के अनुसार सम्पादित होते हैं । बंगाली लोग सौर मासों एवं चान्द्र दिनों का प्रयोग करते हैं जो मलमास के मिलाने से त्रिवर्षीय अनुकूलन का परिचायक है।
तीन सिद्धान्त प्रयोग में आते हैं, यथा सूर्यसिद्धान्त ( अपनी विशुद्धता के कारण सारे भारत में प्रयुक्त है), आर्यसिद्धान्त ( त्रावणकोर, मलावार, कर्णाटक में माध्वों द्वारा, मद्रास के तमिल जनपदों में प्रयुक्त) एवं ब्राह्मसिद्धान्त ( गुजरात एवं राजस्थान में प्रयुक्त ) । अन्तिम सिद्धान्त अब प्रथम सिद्धान्त के पक्ष में समाप्त होता जा रहा है। सिद्धान्तों में महायुग से आरम्भ कर गणनाएँ की जाती हैं जो इतनी भारी भरकम हैं कि उनके आधार पर सीधे ढंग से पंचांग बनाना कठिनसाध्य है। अतः सिद्धान्तों पर आधारित करण नामक ग्रन्थों के आधार पर पंचांग निर्मित होते हैं, यथा बंगाल में मकरन्द, गणेश का ग्रहलाघव । ग्रहलाघव की तालिकाएँ दक्षिण, मध्य भारत तथा भारत के कुछ भागों में प्रयुक्त होती हैं । सिद्धान्तों में आपसी अन्तर के दो महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं -- (१) वर्ष विस्तार के विषय में ( वर्षमान का अन्तर केवल कुछ विपलों का है) और (२) कल्प या महायुग या युग में चन्द्र एवं ग्रहों की चक्र-गतियों की संख्या के विषय में ।
ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि यह बात केवल भारत में ही पायी गयी है । आजकल का यूरोपीय पंचांग भी असन्तोषजनक है। प्रारम्भिक रूप में ई० पू० ४६ में जुलिएस सीजर ने एक संशोधित पंचांग निर्मित किया और प्रति चौथे वर्ष 'लीप' वर्ष की व्यवस्था की । किन्तु उसकी गणनाएँ ठीक नहीं उतरीं, क्योंकि सन् १५८२ में वासन्तिक विषुव २१ मार्च को न होकर १० मार्च को हुआ । पोप ग्रेगोरी १३ वें ने घोषित किया कि ४ अक्टूबर के उपरान्त १५ अक्टूबर होना चाहिए ( दस दिन समाप्त कर दिये गये ) । उसने आगे कहा कि जब तक ४०० से भाग न लग
तब तक शती वर्षों में 'लीप' वर्ष नहीं होना चाहिए ( इस प्रकार १७००, १८००, १९०० ईसवियों में अतिरिक्त दिन नहीं होगा, केवल २००० ई० में होगा ) । तब भी त्रुटि रह ही गयी, किन्तु ३३ शतियों से अधिक वर्षों के उपरान्त ही एक दिन घटाया जायेगा । आधुनिक ज्योति शास्त्र की गणना से ग्रेगोरी वर्ष २६ सेकण्ड अधिक है । सुधारवादी प्रोटेस्टेण्ट इंग्लैण्ड ने सन् १७५० ई० तक पोप ग्रेगोरी का सुधार नहीं माना, जब कि कानून बना कि २ सितम्बर को ३ सितम्बर न मान कर १४ सितम्बर माना जाय ( ११ दिन छोड़ दिये जायें) । तब भी यूरोपीय पंचांग में दोष रह ही गया । इसमें मास में २८ से ३१ तक दिन होते हैं, एक वर्ष के एक पाद में ९० से ९२ दिन होते हैं; वर्ष के दोनों अर्घाशों (जनवरी से जून एवं जुलाई से दिसम्बर) में क्रम से १८१ ( या १८२ ) एवं १८४ दिन होते हैं; मास में कर्म दिन २४ से २७ होते हैं तथा वर्ष एवं मास विभिन्न सप्ताह - दिनों से आरम्भ होते हैं । व्रतों का राजा ईस्टर सन् १७५१ के उपरान्त ३५ विभिन्न सप्ताह दिनों में (अर्थात् २२ मार्च से २५ अप्रैल तक) पड़ा, क्योंकि वह ( ईस्टर ) २१ मार्च पर या उसके उपरान्त पड़ने वाली पूर्णिमा का प्रथम रविवार है । यह पहले ही निर्देश किया जा चुका है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में शुद्ध ज्योतिःशास्त्रीय बातों का विवेचन नहीं होगा, अतः लेखक तत्सम्बन्धी विवरणों में नहीं पड़ेगा । किन्तु आवश्यकतानुसार यत्र-तत्र कुछ बातों पर प्रकाश डाल दिया जायेगा । जो लोग भारतीय ज्योतिःशास्त्र ( ऐस्ट्रॉनॉमी) के विषय में जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं वे निम्न ग्रन्थों एवं लेखों को पढ़ सकते हैं - वारेन का कालसंकलित; सूर्यसिद्धान्त ( टिनी द्वारा अनूदित ) ; वराहमिहिर की पञ्चसिद्धान्तिका (थिबो एवं सुधाकर द्विवेदी द्वारा अनूदित ) ; जे० बी० जवस कृत 'इण्डिएन मेट्रालॉजी'; शंकर बालकृष्ण दीक्षित कृत 'भारतीय ज्योतिःशास्त्र' (मराठी में उच्च कोटि का ग्रन्थ, हिन्दी में अनुवाद; सेवेल एवं दीक्षित का इण्डिएन कैलेण्डर ( १८९६ ई० ) ; सेवेल कृत 'इण्डिएन कोनोग्रफी' (१९१२ ई०) ; सेवेल कृत' 'सिद्धान्ताज एण्ड इण्डिएन कैलेण्डर ' ; लोकमान्य तिलक कृत 'वेदिक कोनोलोजी एण्ड वेदांगज्योतिष' (१९२५) ; दीवान बहादुर स्वामिकन्नू पिल्लई कृत 'इण्डिएन एफिमेरिस' (सात जिल्दों में ) ; वी० बी०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org