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अध्याय १८ पंचांग (पंजी), संवतों, वर्षों, मासों आदि की कतिपय गणनाएँ
व्रतों एवं उत्सवों के सम्पादन के सम्यक् कालों तथा यज्ञ, उपनयन, विवाह आदि धार्मिक कृत्यों के लिए उचित कालों के परिज्ञानार्थ हमें पंजी या पंचांग की आवश्यकता पड़ती है। लोक-जीवन के प्रयोग के लिए धार्मिक उत्सवों एवं ज्योतिषीय बातों की जानकारी के हेत बहत पहले से ही दिनों, मासों एवं वर्ष के सम्बन्ध में जो ग्रन्थ या विधिक संग्रह बनता है उसे पंचांग या पंजिका या पंजी कहते हैं। भारत में ईसाइयों, पारसियों, मुसलमानों एवं हिन्दुओं द्वारा लगभग तीस पंचांग व्यवहार में लाये जाते हैं। वर्तमान काल में हिन्दुओं द्वारा नाना प्रकार के पंचांगों का प्रयोग होता है। इनमें कुछ तो सूर्यसिद्धान्त पर, कुछ आर्यसिद्धान्त पर, कुछ अपेक्षाकृत पश्चात्कालीन ग्रन्थों, यथा ग्रहलाघव आदि पर आधारित हैं। कुछ पंचांग चैत्र शुक्ल प्रतिपद् (प्रतिपदा) से, कुछ कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ किये जाते हैं तथा कछ ऐसे स्थान हैं, यथा हलार प्रान्त (काठियावाड़), जहाँ वर्ष का आरम्भ आषाढ शक्ल प्रतिपदा से होता है। गजरात एवं उत्तरी भारत (बंगाल को छोड़ कर) में विक्रम संवत, दक्षिण भारत में शक संवत् तथा कश्मीर में लौकिक संवत् का व्यवहार होता है। कुछ भागों (उत्तरी भारत एवं तेलंगाना) में मास पूर्णिमान्त (पूर्णिमा से अन्त होने वाले) होते हैं, अन्यत्र (बंगाल, महाराष्ट्र एवं दक्षिण भारत) में अमान्त (अमावास्या से अन्त होने वाले) होते हैं। इसका परिणाम यह है कि कुछ उपवास एवं उत्सव, जो भारत में सार्वभौम रूप में प्रचलित हैं, यथा एकादशी एवं शिवरात्रि के उपवास एवं श्रीकृष्णजन्म-सम्बन्धी उत्सव विभिन्न भागों में विभिन्न सम्प्रदायों द्वारा दो विभिन्न दिनों में होते हैं तथा कुछ कृत्यों के दिनों में तो एक मास का अन्तर पड़ जाता है। यथा पूणिमान्त गणना से कोई उत्सव आश्विन कृष्ण पक्ष में हो सकता है तो वही मास भाद्रपद कृष्ण पक्ष (अमान्त गणना के अनुसार) कहला सकता है और वही उत्सव एक मास उपरान्त मनाया जा सकता है। आजकल तो यह विभ्रमता और बढ़ गयी है जब कि कुछ पंचांग, यथा दृक् या दृक्प्रत्यय, जो नाविक पंचांग पर आधारित हैं, इस प्रकार व्यवस्थित हैं कि ग्रहण जैसी घटनाएँ उसी प्रकार घटें जैसा कि लोग अपनी आँखों से देख लेते हैं। ऐसा लगता है कि दक्षिण भारत में बहुत-सी पंजिकाएं हैं। तमिलनाडु में दो प्रकार हैं, एक दृक्-गणित पर आधारित और दूसरा वाक्य-विधि (आर्यभट पर आधारित मध्यकाल की गणनाएँ, जो अपेक्षाकृत कम ठीक फल प्रकट करती हैं) पर। पुदुकोट्टाई पंचांग (वाक्य-विधि वाले) उसी नाम वाले राजाओं द्वारा प्रकाशित होते हैं। श्रीरंगम् पंचांग (वाक्य प्रकार) रामानुजीय वैष्णवों द्वारा व्यवहृत होते हैं, किन्तु माध्वों (वैष्णवों के एक सम्प्रदाय के लोगों) के लिए एक अन्य पंचांग है। स्मार्तों द्वारा व्यवहृत कञ्जनूर पंचांग अत्यंत प्रचलित है और वाक्य पंचांग है। स्मात लोग शंकराचार्य के अधिकार से प्रकाशित दृक्-पंचांग को व्यवहार में नहीं लाते। तेलुगु लोग गणेश दैवज्ञ के ग्रहलाघव (सन् १५२० में प्रणीत) पर आधारित सिद्धान्त-चन्द्र पंचांग का प्रयोग करते हैं। मलावार में लोग दृक्-पंचांग का प्रयोग करते हैं किन्तु वह परहित नाम वाली मलावार-पद्धति पर आधारित है न कि तमिलों द्वारा प्रयुक्त दृक्-पंचांग पर। तेलुग लोग चन्द्र-गणना स्वीकार करते हैं और चैत्र शुक्ल से युगादि नामक वर्ष का आरम्भ मानते हैं, किन्तु तमिल सौर गणना के पक्षपाती हैं और अपने चैत्र का आरम्भ मेष विषुव से करते हैं, किन्तु उनके
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