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________________ ग्रह और राशियों की अवस्थाओं का विवेचन नहीं मिलता। सिद्धान्त रूप से शुभ ग्रह शुक्र सूर्य का शत्रु क्यों है, जब कि दूसरा शुभ ग्रह बृहस्पति उसका मित्र है? इसका उत्तर देना अति कठिन है। इतना ही नहीं, ये सम्बन्ध पारस्परिक सम्बन्धों पर नहीं आधारित हैं। चन्द्र का कोई शत्रु नहीं है, किन्तु शुक्र के दृष्टिकोण से शुक्र चन्द्र का शत्रु है। बुध (जो. पौराणिक रूप से चन्द्र का पुत्र है) चन्द्र का मित्र है, किन्तु बुध के दृष्टिकोण के आधार पर उसका चन्द्र शत्रु है। एक और आश्चर्यजनक विषय है। मनुष्य के समान ग्रह भी (सूर्य एवं चन्द्र को छोड़ कर अन्य सभी) आपस में युद्ध करते हैं। इसके अतिरिक्त मंगल एवं बृहस्पति के बीच बहुत-से छोटे-छोटे ग्रह हैं ; प्राचीन एवं मध्य कालों के जन्म-पत्रों में यूरेनिस, नेपचून, प्लूटो एवं बृहस्पति के कतिपय उपग्रहों की चर्चा ही नहीं हुई है। भारतीय ज्योतिष का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है दृष्टि, जिसकी व्याख्या गत अध्याय में हो चुकी है। जब प्राचीन काल में ग्रहों की दूरी नहीं ज्ञात थी तो इस सिद्धान्त का महत्त्व था, किन्तु ज्ञान-परिधि बढ़ जाने से दृष्टि-सिद्धान्त का कोई औचित्य नहीं है। इस विशाल ब्रह्माण्ड में प्रत्येक ग्रह एवं तारा वास्तव में एक-दूसरे को देखता है, बी व में कोई आकाशीय तत्त्व आ जाने से इस प्रकार के देखने में व्यतिक्रम उत्पन्न हो सकता है। किन्तु यह जानना कितना कठिन है कि कोई ग्रह या तारा एक चौथाई, या अर्ध या तीन-चौथाई दृष्टि (विभिन्न कोणों में) पर दूसरे ग्रह या तारा को देखता है। जब कोई ज्योतिषी यह कहता है कि कोई ग्रह (मान लीजिए शुक्र) अपने घर (स्वगृह) में है, अर्थात् चन्द्र के साथ वृषम में, तो इसका क्या तात्पर्य है ? वृषभ राशि में कई तारे होते हैं, जिनमें सब से अधिक ज्योतिर्मान् रोहिणी है। प्रकाश एक सेकण्ड में १,८६,००० मील चलता है और वर्तमान ज्योतिःशास्त्र के अनुसार रोहिणी स पृथिवी पर पहुँचने में उसे ५७ वर्ष लगते हैं। स्थिति यों है : पृथिवी पर का निरीक्षक चन्द्र, शुक्र एवं रोहिणी को एक-दूसरे के पास देखता है। आज के ज्योतिःशास्त्र के अनुसार चन्द्र पृथिवी से लगभग २, ४०,००० मोल, शुक्र इससे कुछ करोड़ मील तथा रोहिणी अरबों मील दूर है। वे सन्निकट केवल दूर रहने के कारण ही दृष्टिगोचर हात है। यह एक एंसी कठिनाई है जिसे ज्योतिषी भूल जाते हैं। जब कोई निरीक्षक आज रोहिणी को देखता है तो उसे जो किरण आज दीख पडती हैं वे आज से ५७ वर्ष पूर्व वहाँ (रोहिणी) से चली थीं, किन्तु मंगल की किरणें अपने प्रस्थान से कुछ मिनटों में दीख जाती हैं तथा चन्द्र की डेढ़ सेकण्ड में दीख जाती हैं। सम्भवतः राशि-ज्योतिष का प्रादुर्भाव भारत में ईसा के ३ शतियों पहले हुआ था। वराहमिहिर के पूर्वजों तथा स्वयं उन्होंने मेष, वृषभ आदि राशियों को ज्योतिर्मण्डल के किसी विशिष्ट वृत्तांश में देखा, और उन व्यक्तियों की मानसिक विशेषताओं एवं वृत्तियों के विषय में नियम प्रतिपादित किये जो तब उत्पन्न हुए थे जब चन्द्र मेष में था, या उन व्यक्तियों के विषय में लिखा जो मेष या अन्य राशियों में उत्पन्न हुए थे, जब सूर्य, मंगल आदि ग्रह उन राशियों में थे। आज से दो सहस्र वर्ष पहले जहाँ वृषभ राशि थी, वहाँ आज मेष राशि होगी। ऐसी स्थिति में ज्योतिषीय गणना कैसे ठीक हो सकती है, जब कि समय के व्यवधान से राशि-स्थलों में इतना परिवर्तन हो जाता है। उपर्युक्त विवेचनों से भारतीय ज्योतिष के दोष स्वतः प्रकट हो जाते हैं, और विचारशील व्यक्ति स्वयं निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि ज्योतिष के नियमों का प्रभाव उनके संकल्पों एवं क्रियाओं पर बहुत कम पड़ता है। अति प्राचीन काल में ज्योतिषीय विस्तार अधिक नहीं था, किन्तु गत दो सहस्र वर्षों में वह बहुत बढ़ गया तथा धार्मिक मान्यताएँ फलतः बहुत बोझिल हो गयीं। जो लोग ऐसा विश्वास करते हैं कि सभी घटनाएँ ग्रहों एवं तारों से प्रभावित एवं अभिभूत हैं, वे एक प्रकार से भूल करते हैं। वे एक ओर भगवान् के नियन्त्रण को नगण्य ठहरा देते हैं और मानव की स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति को छीन लेते हैं। यदि ज्योतिषी ग्रहों के द्वारा निर्देशित घटनाओं को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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