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धर्मशास्त्र का इतिहास अध्याय १६ में) कि चीनी एवं जापानी लोग इन्हें विभिन्न नामों से पुकारते हैं। अतः राशियों के नामकरण में बहुत-से कल्पनात्मक एवं मनमाने ढंगों का सहारा लिया गया है। एक बार अभिहित हो जाने के उपरान्त राशियाँ कई प्रकार से विभाजित होती हैं और उनके वर्ग के अनुसार ही भविष्यवाणियाँ की जाती हैं। ये विभाजन समान क्रम में आने वाले (अपनी अनुभूति के अनुरूप) विचारों एवं कल्पना पर आधारित हैं। किन्तु मेष एवं मिथुन (जो पुरुष एवं नारी दोनों है) दोनों पुरुष (पुंल्लिग) क्यों हैं और वृषभ एवं वृश्चिक स्त्री क्यों हैं ? इसका कोई उत्तर नहीं है, केवल यही कहा जा सकता है कि राशियों को दो भागों, पुरुष एवं स्त्रीलिंग में विभाजित करता था तो उन्हें अनुरूपता के लिए (एक को) पुरुष एवं (दूसरे को) स्त्री कह दिया गया। इसी कारण से समनुरूपता के क्रम में मेष एवं कर्क को तथा सिंह एवं वृश्चिक को स्थिर कहा गया। सूर्य (सभी प्रकाशों को देने वाले एवं विश्व के आश्रय), मंगल एवं शनि को क्रूर या पाप (दुष्ट) ग्रह कहा गया, बृहस्पति एवं शुक्र को शुभकर तथा क्षयशील चन्द्र को अशुभकर कहा गया । यहाँ विचारों के साहचर्य एवं उपमा का सहारा लिया गया है। बृहस्पति एवं शुक्र दोनों चमकदार एवं श्वेत हैं, किन्तु मंगल लाल (रक्त के रंग का) है। इसके अतिरिक्त प्रथम दो क्रम से देवों एवं असुरों के गुरु हैं। अतः वे शुभकर हैं और मंगल अशुभकर है। सूर्य, बृहस्पति एवं मंगल पुल्लिंग, चन्द्र एवं शुक्र स्त्रीलिंग तथा बुध एवं शनि नपुंसक विचार-साहचर्य के कारण ही हैं। चन्द्र एवं शुक्र सुन्दर एवं मृदु हैं, अतः वे स्त्रीलिंग हैं, किन्तु सूर्य (जिसमें भयानक अग्नि है), मंगल (रक्त रंग वाला) एवं बृहस्पति (देवों के आचार्य) पुंल्लिग हैं। आज के ज्योतिःशास्त्र के अनुसार चन्द्र शुष्क है और उसमें ज्वालामुखियों के अवशेष मात्र हैं, तथापि, ज्योतिषियों के अनुसार वह स्त्रीलिंग है। संस्कृत में चन्द्र को 'शशांक' कहा जाता है। जापानी चन्द्र-देवी ग्वाटेन' खरगोश के साथ अंकित है। ...... . अब हम स्वगृहों एवं उच्चों (ग्रहों की उच्चताओं) के सिद्धान्त की चर्चा करेंगे। बारह राशियाँ एवं सात ग्रह हैं; पाँच ग्रहों को दो-दो राशियाँ स्वगृह के रूप में दी गयी हैं और शेष दो ग्रहों को एक-एक राशि स्वगृह के रूप में मिली है ।। बृहज्जातक में सूर्य एवं चन्द्र की केवल एक-एक राशिः मानी गयी है क्रम से सिंह एवं कर्क, किन्तु अन्यः पाँच ग्रहों में प्रत्येक को दो राशियां दी गयी हैं। ऐसा क्यों है? कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं दिया जा सकता।"दो, राशियों को स्वगृह के रूप में लेना केवल अनुक्रम का द्योतक है, यथा सिंह के उपरान्त एक तथा कर्क के उपरान्त एक, अर्थात कन्या एवं मिथन बध को; इसी प्रकार दूरी के आधार पर अन्य ग्रहों को राशियाँ दी गयी हैं। इसका परिणा
रणाम यह है कि वर्षभ एवं तुला सुन्दर एवं चमकदार ग्रह शुक्र के स्वगृह हैं तथा धन एवं मीन बृहस्पति के स्वगृह हैं। यदि हम उच्च के सिद्धान्त की बात करें तो कोई बौद्धिक ज्योतिषीय उत्तर नहीं मिलता कि मेष, वृषभ, मकर, कन्या, कर्क, मीन एवं तुला क्रम से सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र एवं शनि के उच्च क्यों कहे गये हैं।
- बारह भावों के नामकरण एवं उनकी व्यवस्था का भी कोई बौद्धिक आधार नहीं प्राप्त होता। जन्म एवं मरण व्यक्ति के जीवन के दो छोर हैं। यदि पहला भाव तनु है तो मृत्यु का भाव (अन्तिम भाव) १२ वा होना चाहिए, किन्तु बृहज्जातक आदि ग्रन्थों में मृत्यु का भाव आठवाँ है। कुछ भावों के बारे में बहुत-से विषय हैं। उदाहरणार्थ, चौथे भाव में व्यक्ति के सम्बन्धी, मित्र, घर, आनन्द (सुख) एवं वाहन आदि हैं। पांचवें भाव में पुत्र, ज्ञान, बुद्धि एवं वाणी है। मान लिया जाय कि यह भाव बड़े सुन्दर ढंग से व्यवस्थित है तो भविष्यवाणी होगी कि व्यक्ति को कई पुत्र होंगे, वह विद्वान् होगा और अच्छा वक्ता होगा। किन्तु ये सब एक साथ बहुत कम घटित होते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति पुत्रहीन होता है तथा अति विद्वान् व्यक्ति अधिकतर अच्छा वक्ता नहीं होता।
. अब हम ग्रहों की पारस्परिक मित्रता एवं शत्रुता का विवेचन करेंगे। इस विषय में कोई भी स्पष्ट कारण
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