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________________ गृह-निर्माण, प्रवेश मोरमतिका महतं उत्तराओं, रेवती, श्रवण, शतभिषा, अनुराधा, स्वाती नक्षत्रों में, सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार या शुक्रवार के दिन, शुभ योग पर, रिक्ता तिथियों (चौथी, नवमी एवं चतुर्दशी) को छोड़ कर किसी अन्य तिथि पर, उस दिन जब विष्टि न हो, जब शुभ ग्रह केन्द्र (प्रथम, चौथे, ७ वें एवं १० वें घरों) में हों, जब बृहस्पति लग्न या केन्द्र में हो, या शुक्र इन घरों में कहीं हो और गृही की राशि शुभ हो, जब कोई स्थिर नक्षत्र उदित हो रहा हो तब आरम्भ करना चाहिए या प्रथम गृह-प्रवेश करना चाहिए। रत्नमाला का कथन है कि गृह-निर्माण चर राशियों में नहीं होना चाहिए। बहुत-सी ऐसी जटिल गणनाएँ एवं रेखाकृतियाँ बनी हैं जो गृह-निर्माण के आरम्भ के उचित कालों का पता चलाती हैं, यथा आय, व्यय एवं राहमुखचक जिनका विवेचन यहाँ नहीं किया जायेगा। .. . . गृह-प्रवेश के सिलसिले में देखिए राजमार्तण्ड (श्लोक ८८७, ९००-९०८), रत्नमाला (१८।१-११), ज्योतिस्तत्त्व (पृ० ६७०-७१), मु० चि० (१३), नि० सि० (पृ० ३६६) । रा० मा० का कथन हैं कि गृह-प्रवेश रेवती, धनिष्ठा, शतभिषक्, रोहिणी, तीनों उत्तराओं, शुभ दिन, जब चन्द्र दुर्बल न हो, रिक्ता को छोड़ अन्य तिथियों में होना चाहिए। गृह-प्रवेश के समय फर्श पर पुष्प बिखरे हों, तोरण बने हों, जलपूर्ण पात्र (कलश) रखे हों, जिनमें चन्दन, पुष्प एवं होम से देव-पूजा की गयी हो और जहाँ ब्राह्मणों द्वारा वेद-पाठ हो रहा हो। . देवमूर्ति-प्रतिष्ठापन के उचित कालों के विषय में बृ० सं० (६०१२०-२१), मत्स्य० (२६४), विष्णुधर्मोत्तर (३१९६), रा० मा० (श्लोक ९०९-९४३), हेमाद्रि (काल, पृ० ८३०-८४७), ज्योतिस्तत्त्व (पृ० ६६६-६६७ एवं ६७२-७३), नि० सि० (पृ० ३३४-३३५), ध० सि० (पृ. ३१८) में बहुत कुछ उल्लिखित है। बृ० सं० (६०। २०-२१) में आया है उत्तरायण, शुक्ल पक्ष में, जब चन्द्र बृहस्पति के वर्ग में हो, जब लग्न स्थिर राशि का हो, लग्न की नवमांश राशि स्थिर हो, जब शुभ ग्रह केन्द्र में हों या जन्म-पत्रिका के ५ वें एवं ९ वें घर में हों, जब दुष्ट प्रह तीसरे, छठे, १० वें या ११वें स्थान में हों, ध्रव या मदनक्षत्र श्रवण, पुष्य या स्वाती जैसे हों, शभ दिन (मंगल को छोड़कर) पर देव-स्थापन होना चाहिए।' मत्स्य (२६४१३-१२) के मत से जब मूर्ति की प्रतिष्ठा चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, माघ या फाल्गुन में हो, दक्षिणायन के उपरान्त शुक्ल पक्ष में हो, दूसरी, तीसरी, ५ वीं, ७ वी, १० वीं तिथियों में हो, पूर्णिमा, त्रयोदशी (सर्वोत्तम तिथि) में हो या १६ नक्षत्रों (भरंणी, कृत्तिका, आर्द्रा, पुनर्वसु, आश्लेषा, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, चित्रा, विशाखा, धनिष्ठा, शततारका को छोड़ कर) में हो, जब लग्न पर बुध, बृहस्पति एवं शुक्र की दृष्टि हो, शुभ योग हो, जब लग्न या नक्षत्र (प्रतिष्ठापन का) दुष्ट ग्रहों से गृहीत न हो और ब्राह्म मुहूर्त हो, तो शुभ फल प्राप्त होते हैं। _रत्नमाला (२०।२-३) ने विभिन्न देवों की मूर्ति-प्रतिष्ठा के लिए विभिन्न नक्षत्रों की व्यवस्था दी है और मनोरंजक बात यह है कि उसमें बौद्ध प्रतिमा स्थापन के लिए श्रवण नक्षत्र का प्रतिपादन हैं। माताओं, भैरव, वराह, नरसिंह एवं त्रिविक्रम अवतारों, देवी (महिषासुरमर्दिनी) की प्रतिमाओं की स्थापना दक्षिणायन में भी हो सकती है। लिंग-स्थापन के लिए विशिष्ट नियम हैं (देखिए निर्णयसिन्धु, पृ० ३३५-३३६)। रा० मा० (श्लोक ९४२) के मंत से मूर्ति स्थापना के लिए द्वितीया, तृतीया, दशमी, त्रयोदशी एवं पञ्चदशी की तिथियाँ मान्य हैं, इतना ही नहीं, प्रत्युत स्थापक की इच्छा से सप्तमी एवं षष्ठी भी मान्य हो सकती हैं। . . मध्यकालिक ग्रन्थों, यथा रा० मा०, भुजबल, मु. मा०, ज्योतिस्तत्त्व, नि० सिं० में सूर्य के नीचे सभी विषयों (धार्मिक होना कोई आवश्यक नहीं) के मुहूर्तों एवं अशुभ कालों का विवेचन पाया जाता है, यथा पशुओं, गल्लों आदि का क्रय-विक्रय, कृषिकर्म, वृक्षारोपण, कूपों, पुष्करों आदि का खोदना, तेल-स्नान, त्रिफला-स्नान आदि के विषयों में। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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