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यात्रा के मुहल एवं शुभालुम का विचार
३०५ कुछ अन्य बातों की ओर भी संकेत किया जा सकता है। पौष से आगे के चार मासों में वर्षा बिना ऋतु वाली कही जाती है। उसके उपरान्त ७ दिनों तक व्रत एवं यात्रा नहीं करनी चाहिए; बिना ऋतु की वर्षा से राजा के प्रयाण में कोई दोष नहीं होता, यदि स्थल पर मनुष्यों एवं पशुओं के चरण-चिह्न न हों। मु० चि० (१११७६) में आया है कि जब तक उपनयन, मूर्ति-स्थापन, विवाह, (होलिका जैसे) उत्सव, अशौच (जन्म-मरण पर सूतक) समाप्त न हो जायँ और अनृतु-वर्षा, वज्रपात या तुषारपात के उपरान्त ७ दिन बीत न जाये तब तक यात्रा नहीं करनी चाहिए। देखिए र० मा० (१५१५९)।
गृह-प्रवेश की तिथि के उपरान्तः नवमी दिन को गृह के बाहर जाना या जाने के उपरान्त प्रवेश करना तथा स्वयं नवमी वजित है; यही बाप्त सप्ताह-दिवस एवं नक्षत्र के विषय में भी है (मु० चि० १११७९)।
शुक्र सम्मुख हो तो प्रस्थान नहीं करना चाहिए। यह विश्वास बहुत प्राचीन है, यह शान्तिपर्व एवं कालिदास में भी उल्लिखित है। यदि राजा या किसी ने किसी शुभ दिन या योग में यात्रा करने का निर्णय कर लिया हो, किन्तु किसी अप्रत्याशित या अनिवार्य कार्य से वास्तविक जाना न हो पाये तो उसे प्रस्थान (प्रारम्भ कर के कुछ दूर जाकर पुनः लौट आना या शुभ दिन पर कोई वस्तु भेज देना और उसके उपरान्त कुछ निश्चित दिनों के भीतर प्रयाण कर देना) रख देना चाहिए । ब्राह्मण को जनेक (यशीपवीत), क्षषिय को कोई हथियार, वैश्य को मधु, शूद्र को कोई पवित्र फल (नास्पिल आदिः) भेजना चाहिए या किसी भी वर्ण वाले को अपनी कोई प्रिय वस्तु भेजनी चाहिए (रा० मा०, श्लोक ७७१; मु. चि० ११३८९)। इस विषय में, अर्थात् कितनी दूर जायें और लौट आयें, ऋषियों के मतों में भेद है। गार्ग्य के मत से व्यक्ति को अपने घर से दूसरे घर (बहुत सन्निकट) में जाना चाहिए; भृगु के मत से अपने गाँध की सीमा पार करके दूसरे गांव में ठहरना चाहिए; भरद्वाज के मत से शरक्षेप (एक तीर जितनी दूर पहुँचता है) तक, तथा वसिष्ठ के मत से नगर के बाहर हो जाना चाहिए।" प्रस्थान यात्रा की दिशा में ही होना चाहिए। यदि राजा प्रस्थान करे तो उसे १० दिनों तक एक स्थान पर नहीं टिका रहना चाहिए (अर्थात् वह ९ दिनों तक ठहर सकता है), सामन्त (माण्डलिक) सात दिनों तक तथा साधारण व्यक्ति पाँच दिनों तक ; किन्तु कोई इन निर्धारित अवधियों से अधिक ठहर जाता है तो उसे पुनः नये मुहूर्त में यात्रा करनी चाहिए (र० मा० १५।५६; मु० चि० १११९२)। आजकल भी प्रस्थान की परम्परा है, और लोग बहुधा पड़ोसी के घर में चावल, सुपाड़ी, हल्दी आदि रखकर वास्तविक यात्रा के समय उसे लेकर चल देते हैं।
योगयात्रा (१३।३) ने व्यवस्था दी है कि रणयात्रा के समय राजा को 'मंगल' वस्तु का दर्शन, श्रवण एवं स्पर्श करना चाहिए। वेद एवं वेदांगों के पाठों के, शंखों के, ढोलक के, 'पुण्याह' (यह पवित्र दिन है) जैसे शब्दों के एवं पुराणों के स्वर; धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, महाभारत एवं रामायण; सारसों, चाषों, मयूरों, हंसों एवं जीवंजीवक (चकोर) की चहचहाहट ; पंकिल कछुओं की पीठों पर बैठे कौए; बिल्व वृक्ष, चौरी, चन्दन, बछड़े के साथ गाय, बकरी, प्रियंगुलता, भुने हुए अन्न, पुरुषों से भरे रथ शुभ वस्तुएँ हैं; झण्डे, सर्वोषधि, स्वस्तिक चिह्न,
९. यतो वायुर्यतः सूर्यो यतः शुक्रस्ततो जयः।पूर्व पूर्व ज्याय एषां सन्निपाते युधिष्ठिर ॥शान्ति० (१००।२०); दृष्टिप्रपातं परिहृत्य तस्य कामः पुरः शुक्रमिव प्रयाणे। कुमारसम्भव (३।४३)।
१०. गृहाद गहान्तरं गायः सीम्नः सीमान्तरं भृगुः। शरक्षेपाद भरद्वाजो वसिष्ठो नगराद्वहिः॥ रा० मा० (श्लोक ७६९); मु. चि० (११३१०)।
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