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________________ चन-तारावल, मात्रामुहूर्त ३०३ जाता है। इन दोनों पर इस महाग्रन्थ के खण्ड २ में विचार हो चका है। मु. मा० (४।१-१२), मु. चि० (६।२१-३५), संस्कार-प्रकाश (वीरमित्रोदय का भाग) एवं संस्काररत्नमाला में इन आठ कूटों पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। बहुत-सी बातों को एक नियम ने सरल बना दिया है, यथा यदि वधू एवं वर के जन्म की एक ही राशि हो, किन्तु दोनों के जन्म-नक्षत्र भिन्न हों, या नक्षत्र तो एक ही हो किन्तु राशियाँ भिन्न हों तो गण एवं नाड़ी आदि का विचार नहीं होता, यदि दोनों का नक्षत्र एक ही हो और वे दोनों विभिन्न दिशाओं में उत्पन्न हुए हों तो विवाह शुभ माना जाता है। विवाह में बृहस्पति की अनुकूलता को बहुत महत्व दिया जाता है। रत्नमाला (१६।२६) में आया है-'बुध, जो उदय हो (सूर्य से दूर रहने पर), और जन्म-पत्र के प्रथम, चौथे एवं १० वें स्थान को ग्रहण करता हो, एक सौ ज्योतिषीय दोषों का शमन करता है। शुक्र इस प्रकार के दूने दोषों को दूर करता है और देवों के गुरु (बृहस्पति) जब प्रबल होते हैं तो शत-सहस्र दोषों को दूर करते हैं।' विवाह में चन्द्रबल एवं ताराबल दोनों की आवश्यकता पड़ती है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि जन्म के नक्षत्र से तीसरा, पाँचवाँ एवं सातवाँ नक्षत्र क्रम से 'विपद्', 'प्रत्यरि' (शत्रु के सम्मुख) एवं 'वध' (नाश) कहलाता है और वे सभी अपने नामों के अनुरूप फल प्रदान करते हैं; अतः उनका शुभ कृत्यों, विशेषतः विवाह में त्याग करना पड़ता है। जन्म से लेकर नक्षत्र तीन-दलों के आधार पर ९ भागों में बँटे हैं। दूसरे दल में दुष्ट नक्षत्र हैं १२ वाँ, १४ वा एवं १६ वाँ तथा तीसरे दल में हैं २१ वाँ, २३ वाँ एवं २५ वाँ। ऐसी व्यवस्था थी कि जहाँ चन्द्र बलवान् है तो ताराबल पर विचार नहीं किया जाता, किन्तु जहाँ चन्द्र दुर्बल (जैसा कि कृष्ण पक्ष में) है वहाँ ताराबल महत्त्वपूर्ण होता है। कुछ लेखकों ने जन्म-नक्षत्र को भी कुछ कृत्यों में वर्जित माना है, यद्यपि वह अन्य कृत्यों में स्वीकार्य है। 'विपद्', 'प्रत्यरि' एवं 'वध' नामक दुष्ट तारा ब्राह्मणों को गुड़, नमक एवं सोने का दान तिल के साथ देकर प्रसन्न किये जा सकते हैं। विवाह के विषय में राजमार्तण्ड (श्लोक ६११-६१२) का कथन है-'तिथि से दिन का मूल्य चौगुना, नक्षत्र का १६ गुना, योग का सौ गुना, सूर्य का सहस्र गुना होता है और चन्द्र का मूल्य लाख गुना होता है। अतः अन्य बलों की अपेक्षा चन्द्रबल को अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए। अब भारत में राजा का महत्त्व नहीं रह गया है अतः राज्याभिषेक के मुहूर्तों का महत्त्व नाममात्र का रह गया है, इसलिए हम इस प्रकार के मुहूर्तों का उल्लेख नहीं करेंगे। जो लोग पढ़ना चाहें वे देखें रत्नमाला (१४। १-८), मु० मा० (८११), मु० चि० (१०।१-४), राजनीतिरत्नाकर (पृ० ८२-८४, डा० के० पी० जायसवाल द्वारा सम्पादित)। एक अन्य ज्योतिषीय शब्द है यात्रा, जिसके दो अर्थ हैं : (१) तीर्थ के लिए या धन कमाने के लिए यात्रा तथा (२) विजय के लिए राजा की रण-यात्रा। प्रथम प्रकार सभी वर्गों में समान है, किन्तु दूसरा केवल क्षत्रियों या राजा के लिए है (मु० चि० ११११)। इस विषय में न केवल ज्योतिष-ग्रन्थों, प्रत्युत स्मृतियों, कौटिल्य के अर्थशास्त्र एवं पुराणों में बहुत महत्त्व प्राप्त है। आश्रमवासिकपर्व (७।१२-१८), मनु (७।१८१-२१२), मत्स्य० (२४०-२४३), अग्नि० (२३३-२३५), विष्णुधर्मोत्तर (२११७५-१७६), अर्थशास्त्र (९, उसका कार्य जो आक्रामक होना चाहता है, एवं १०, युद्ध के सम्बन्ध में) ने विस्तार के साथ यान या यात्रा का विवेचन किया है। बृहत्संहिता (अध्याय २, पृ० ६१, कर्न का सम्पादन एवं पृ० ७१, द्विवेदी का सम्पादन) में यात्रा के विषयों को इस प्रकार रखा गया है-यात्रा के अन्तर्गत उचित तिथियों, दिवसों, करणों, नक्षत्रों, मुहूतों, विलग्न (प्रस्थान के समय का लग्न), (विभिन्न) योग (ग्रहों, नक्षत्रों, राशियों आदि के योग), शरीर-स्पन्दनों, स्वप्नों, विजय-स्नानों, ग्रह-यज्ञों, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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