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वर्मशास्त्र का इतिहास परिमार्जन उपस्थित किये हैं। पराशर में आया है कि गंगा एवं गोदावरी के मध्य के देशों में, जब बृहस्पति सिंहस्थ हो, विवाह-कृत्य नहीं करना चाहिए तथा सभी (भारत के) देशों में जब बृहस्पति मघा नक्षत्र (अर्थात् सिंह के प्रथम नक्षत्र) में हो और सूर्य मीन में हो तो विवाह नहीं होना चाहिए। वसिष्ठ ने कहा है-'गंगा के उत्तर एवं गोदावरी के दक्षिण के देशों में सिंहस्थ गुरु में विवाह एवं उपनयन बुरा नहीं है (भुजबल, पृ० २७५; राजमार्तण्ड, श्लोक १०५७; नि० सि०, १० ३०५)।
मुहूर्तों के जटिल स्वभाव के कारण विवाह के लिए गोधूलि या गोरज नामक लघु मार्ग अपनाया जाता है। राजमार्तण्ड ने इस विषय में १० श्लोक दिये हैं (५५०-५५९) जिनमें तीन यों हैं --'वह समय जब कि सूर्य अस्त होता हुआ कुंकुम या लाल चन्दनलेप के समान प्रतीत होता है, जब कि नभ में स्थित तारागण अपने प्रकाश से टिमटिमाते हुए नहीं दीखते, जब कि नभ गायों के खुरों की नोकों से चूर्ण की हुई धूलि से भर जाता है वह वेला धनधान्य' की वृद्धि करने वाली गोधूलिका कहलाती है। इस मुहूर्त में ग्रह, तिथियाँ, विष्टि या तारागण या नक्षत्र (ऋक्ष) विघ्न नहीं उत्पन्न करते; यह अव्याहत योग भार्गव द्वारा विवाह-काल एवं यात्रा के लिए उद्घोषित है। जब कोई अन्य विशुद्ध लग्न नहीं हो तो ऋषिगण इस गोधूलिका (मुहूर्त) को विशुद्ध कह कर आदेश देते हैं ; किन्तु यदि विशुद्ध एवं बलवान् लग्न प्राप्त हो जाय तो गोधूलिका मुहूर्त शुभ फल नहीं प्रदान करता। धर्मसिन्धु (पृ० २५४) ने केवल मुहूर्तमार्तण्ड (४।३८) को उद्धृत किया है, जहाँ यह आया है कि यह मुहूर्त केवल शूद्रों के लिए है, किन्तु अत्यन्त कठिनाई के समय, जब कि कन्या यौवनावस्था को प्राप्त हो गयी हो, यह ब्राह्मणों एवं अन्य वर्गों के लोगों के लिए शुभ हो सकता है। आजकल भी कभी-कभी सभी वर्गों द्वारा यह गोरज-मुहूर्त अपनाया जाता है।
विवाह-सम्बन्धी बहुत-से जटिल ज्योतिषीय विषय हैं, यथा दशयोगचक्र एवं सप्तशलाकाचक्र, जिनको हम स्थान-संकोच से यहीं छोड़ देते हैं। किन्तु एक विषय पर, जिसके बारे में आज भी विचार होता है, हम संक्षेप में कुछ कहेंगे, यथा वधू एवं वर की जन्म-राशि एवं नक्षत्रों से सम्बन्धित आठ कूटों की तुलना पर गुणों की गणना करना। इस विषय को वधूवरमेलापक विचार या घटितगुणविचार की संज्ञा मिली है। आठ कूट ये हैं-~~वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रहमैत्री, गणमैत्री, राशिकूट एवं नाड़ी (मु० चि० ६।२१) । वर्ण का एक गुण या लक्षण, वश्य के दो, तारा के तीन'. . . इस प्रकार कुल ३६ गुण हैं। इनमें सभी, कहीं भी व्याख्यायित नहीं हैं, यहाँ तक कि सब से अन्त में आने वाले ग्रन्थ भी सभी कुटों का विवरण नहीं उपस्थित करते। धर्मसिन्धु ने अन्त के चार कूटों पर ही विचार किया है। आजकल भी ब्राह्मणों एवं अन्य जातियों में गण एवं नाड़ी को विशेष महत्त्व दिया
८. यावत्कुंकुमरक्तचन्दननिभोप्यस्तं गतो भास्करो यावच्चोडुगणो नभःस्थलगतो नो दृश्यते रश्मिभिः। गोभिश्चापि खुरानभागदलितव्याप्त नभः पांसुभिः सा वेला धनधान्यवृद्धिजननी गोधूलिका शस्यते॥ नास्मिन्प्रहा न तिथयो न च विष्टिवारा ऋक्षाणि नैव जनयन्ति कदा न विघ्नम् । अव्याहतः स तु नामवा (सततमेव ? ) विवाहकाले यात्रासु चायमुदितो भृगुजेन योगः ॥ लग्नं यदा नास्ति विशुद्धमन्यद् गोधूलिकं साधु तदाविशन्ति। लग्ने विशुद्ध सति वीर्ययुक्ते गोधूलिकं नैव शुभं विषते॥राजमार्तण्ड (श्लोक, ५५१, ५५६ एवं ५५९); ' ज्योतिस्तत्व (पृ० ६१०६११) । मिलाइए बृ० सं० (१०२।१३) : गोपर्यष्ट्या हतानां खुरपुटदलिता या तु धूलिदिनान्ते सोढाहे सुन्दरीणां विपुलधनसुतारोग्यसौभाग्यकों। तस्मिन्काले न चक्षं न च तिथिकरणं नैव लग्नं न योगः ख्यातः पुंसां सुखार्थ शमयति दुरितान्युत्थितं गोरजस्तु॥
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