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________________ ३०० धर्मशास्त्र का इतिहास शुभ होता है यदि चत्र में सम्पादित हो, जब कि सूर्य मीन (बृहस्पति के स्वगृह) में हो।' यह अपवाद इसलिए है कि उपनयन का मुख्य काल है गर्भाधान से आठवाँ वर्ष और अन्य दशाएँ गौण महत्त्व की होती हैं (धर्मसिन्धु, पृ० २०१)। ब्राह्मणों के उपनयन एवं समावर्तन में कुछ ही नक्षत्र शुभ माने गये हैं, यथा हस्त, चित्रा, स्वाती, पुष्य, धनिष्ठा, रेवती, अश्विनी, मृगशीर्ष, पुनर्वसु एवं श्रवण ; जब चन्द्र शक्तिशाली हो (अर्थात् शुक्ल पक्ष की पंचमी से कृष्णपक्ष की पंचमी तक) तो किसी प्रतिपादित तिथि पर उपनयन सम्पादित होना चाहिए (हेमाद्रि, काल, पृ० ७४९; राजमा०, श्लोक ३१६; अपरार्क, पृ. ३२)। विवाह के लिए अति जटिल नियम प्रतिपादित हैं। आश्व० गृ० (१।४।१-२) ने चार संस्कारों (चौल. उपनयन, गोदान एवं विवाह) के लिए बड़ा सरल नियम दिया है---उत्तरायण, शुक्ल पक्ष एवं कोई शुभ नक्षत्र। बौधा० गृ० (१।१।१८-२०) के अनुसार विवाह किसी भी मास में हो सकता है, किन्तु कुछ लोगों के अनुसार आषाढ़, माघ एवं फाल्गुन वजित हैं, शुभ नक्षत्र हैं रोहिणी, मृगशीर्ष, उत्तरा-फाल्गुनी एवं स्वाती। आप० गृ० में भी यही बात है। कौशिकसूत्र (७५।२-४) मध्यकालीन एवं वर्तमान काल के व्यवहार की विधि तक पहुँच जाता है और प्रतिपादित करता है कि विवाह-सम्पादन कार्तिक पूर्णिमा से वैशाख-पूर्णिमा तक हो सकता है, या अपने मन के अनुसार हो सकता है, किन्तु चैत्र का मास या आधा चैत्र छोड़ देना चाहिए। मध्य एवं वर्तमान काल में मतैक्य नहीं है। राजमार्तण्ड ने चैत्र एवं पौष को छोड़कर सभी मास मान लिये हैं। किन्तु धर्मसिन्धु के मत से माघ, फाल्गुन, वैशाख एवं ज्येष्ठ शुभ हैं, मार्गशीर्ष मध्यम है; कुछ ग्रन्थों में आषाढ़ एवं कार्तिक आज्ञापित हैं और देशाचार को मान्यता दे दी गयी है। अब नक्षत्रों, सप्ताह-दिनों, ग्रह-स्थितियों, विशेषतः बृहस्पति, शुक्र, सूर्य एवं चन्द्र पर विचार करना चाहिए। किन्तु ऐसा करने के पूर्व ११ वीं शती के पूर्वार्ध में प्रणीत राजमार्तण्ड एवं भुजबल की कन्या-विवाह-सम्बन्धी सम्मति पर ज्योतिष में विश्वास करने वाले तथा उसके अनुसार चलने वाले व्यक्तियों का ध्यान आकृष्ट करना आवश्यक है। राजमार्तण्ड में आया है-जब (आक्रामक) राजा ने देश पर अधिकार कर लिया हो, जब युद्ध चल रहा हो, जब माता-पिता का जीवन भय में (संशय में) होतो प्रौढ कन्या के विवाह के लिए किसी (शुभ) काल की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए; यदि कन्या अति प्रौढ हो और धर्म-विरोधिनी न हो तो उसे, अविशुद्ध होने पर भी, विवाह के लिए दे देना चाहिए, और इस पर विचार नहीं करना चाहिए कि चन्द्र एवं लग्न शक्तिशाली हैं अथवा ७. राज्ञा ग्रस्तेऽथवा युद्ध पितणां प्राणसंशये। अति प्रौढा तु या कन्या न तु कालं प्रतीक्षते ॥ अतिप्रौढा तु या कन्या न तु धर्मविरोधिनी। अविशुद्धा तु सा देया लग्नचन्द्रबलविना॥राजमार्तण्ड (श्लोक ३९७-३९८), उद्वाहतत्त्व (प.० १२४), नि० सि० (पृ० ३०३) द्वारा उद्धृत । संवर्त (श्लोक ६७) में प्रतिपादित है कि यौवनावस्था से पूर्व कन्या का विवाह हो जाना चाहिए, किन्तु आठ वर्ष की कन्या का विवाह प्रशंसित होना चाहिए। पराशर (१९) का कथन है कि यौवनावस्था प्राप्त कन्या से विवाह करने पर ब्राह्मण पंक्ति में बैठ कर भोजन करने के अयोग्य हो जाता है और वह वृषली का पति हो जाता है। राजमार्तण्ड (श्लोक ३९१) में आया है : 'अष्टवर्षा भवेद् गौरी दशवर्षा च कन्यका। संप्राप्ते द्वादशे वर्षे परस्तात्तु रजस्वला ॥' अतःप्रौढ कन्या के विषय में कुछ लांछन लग गये हैं। भुजबल (पृ० १५२) में आया है : 'दशवर्षव्यतिक्रान्ता कन्या शुद्धिविजिता। तस्मात्तारेन्दुलग्नानां शुद्धौ पाणिग्रहो मतः॥' अतः राजमार्तण्ड ने 'अविशुद्धा' शब्द का प्रयोग किया है। उद्वाहतत्त्व ने इस नियम को यह कहकर मृदु बना दिया है कि प्रौढ कन्या के विवाह में केवल चन्द्र एवं लग्न का विचार करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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