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________________ उपनयन-मूहूर्त २९९ अब हम उपनयन के मुहूर्त की चर्चा करेंगे। यह संस्कार दो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण संस्करों में एक है। आश्व० गृ० (१।४।१) ने चार संस्कारों के लिए एक बहुत सरल नियम दिया है, जिसका उल्लेख अभी थोड़ी दूर पहले किया जा चुका है। आप० घ० सू० (१११११११९) के मत से ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य का उपनयन क्रम से वसन्त, ग्रीष्म एवं शरद में होना चाहिए और अवस्था गर्भाधान के उपरान्त ऋम से ८, ११ एवं १२ वर्ष होनी चाहिए। देखिए यही बात मनु (२।३६) एवं याज्ञ० (१३१४) में। यह द्रष्टव्य है कि न तो किसी सूत्र ने और न मनु एवं याज्ञ० की स्मृतियों ने इस विषय में ग्रह-स्थिति या राशियों या सप्ताह-दिनों या मासों की स्थिति का उल्लेख किया है। आगे चल कर बहुत से नियम बनते और जुटते. चले गये। राजमार्तण्ड में ७० श्लोक (३०४ से ३७३ श्लोक) हैं। इसके अनुसार वर्ष-गणना गर्भाधान से की जाती है। उपनयन के लिए उचित मुहूर्त प्राप्त करना बड़ा दुष्कर कार्य हो गया है। एक नियम यह है--उपनयन एवं विवाह आदि शुभ कृत्य जन्म के नक्षत्र, मास, दिन पर नहीं होने चाहिए और जेष्ठ पुत्र या ज्येष्ठ पुत्री के शुभ कृत्य ज्येष्ठ मास में नहीं किये जाने चाहिए। जन्म मास के विषय में ऋषियों में मत-भेद है । वसिष्ठ के मत से केवल जन्म-मास वर्जित है; गर्ग के अनुसार जन्म से केवल आठ दिन, अत्रि के अनुसार केवल दस दिन और भागुरि के अनुसार जन्म से केवल १५ दिन वजित हैं (राजमार्तण्ड, नि० सि०, पृ० २६३ में उद्धृत)। उपनयन-सम्पादन चन्द्र के न रहने पर (जब वह सूर्य की किरणों से न चमके), शुक्र के छिप जाने पर, जब सूर्य राशि के प्रथम अंश में रहे, अनध्याय (वेदाध्ययन जब वर्जित हो) के दिनों में तथा गलग्रह में नहीं होना चाहिए (अपरार्क, पृ० ३२; स्मृतिच० १, पृ०.२७; हेमाद्रि, काल, पृ० ७५१)। कुछ तिथियाँ एवं काल गलग्रह कहलाते हैं, यथा सप्तमी से विद्ध अष्टमी, त्रयोदशी से चतुर्दशी, प्रतिपदा से द्वितीया आदि। यदि बृहस्पति जन्म की राशि से दूसरी, ५ वीं, ७ वीं, ९ वीं या १० वीं राशि में हो तब वह अति शुभ है; जब वह जन्मराशि से प्रथम, तीसरी, छठी या १० वीं राशि में हो तो शान्ति कृत्य से शुद्ध होने पर शुभ होता है; किन्तु जब बृहस्पति जन्म-राशि से चौथी, ८ वीं या १२ वीं राशि में हो तो वह अशुभ माना जाता है (मुहूर्तचिन्तामणि ५।४६)। ज्योतिषियों ने एक सुविधाजनक सिद्धान्त यह निकाला है कि दुष्ट ग्रह का शमन किया जा सकता है और हानिकर फल दूर किये जा सकते हैं, या यदि सम्पूर्ण दोष दूर न किया जा सके तो शान्ति कृत्यों के द्वारा उनका प्रभाव कम किया जा सकता है, या रत्नों या धातुओं आदि के व्यवहार से दोष का शमन हो सकता है। यथा मंगल एवं सूर्य को प्रसन्न करने के लिए मूंगा पहनना चाहिए, शुक्र एवं चन्द्र के लिए चांदी, बुध के लिए सोना, बृहस्पति के लिए मोती, शनि के लिए लौह तथा अन्य दो (राहु एवं केतु) के लिए राजावर्त धारण करना चाहिए (रत्नमाला, १०।१५; पीयूषधारा, मु० चि०४।११)। और देखिए रत्नमाला (१०।२९), बृ० सं० (१०३।४८)। उपनयन में बृहस्पति को बड़ी महत्ता प्राप्त है, क्योंकि वह देवों का गुरु है एवं वाणी का स्वामी है और उपनयन का सम्बन्ध वेदाध्ययन से है। बृहस्पति की स्थिति पर ध्यान दिया जाता है। किन्तु बृहस्पति के ठीक न रहने पर कुछ अपवाद भी लक्षित किये गये हैं। एक अपवाद यह है-'यदि बृहस्पति जन्म-राशि से ८ वें घर में हो या सिंह राशि (जो सूर्य का स्वगृह है) में हो या नीच (मकर में) हो, या अपने शत्रु के घर में हो तो भी उपनयन बुद्धिविवर्षनं च शेषेषु रोगं कुरुते भयं च ॥ नपाज्ञया ब्राह्मणसंमतेन विवाहकाले मृतसूतके च। बद्धस्य मोक्षे क्रतुदीक्षणे च सर्वेषु शस्तं क्षुरकर्म भेषु ॥ राजमार्तण्ड (२५८, २७२, २७९), भुजबल (पृ० १३०-१३१), अपरार्क (पृ० ३०), स्मृतिच० (१,१० २३) । अन्तिम श्लोक ० सं० (९८३१४) में भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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