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________________ २९८ धर्मशास्त्र का इतिहास दोनों से संयुक्त हो, जब ८ वाँ एवं १२ वाँ घर दोष रहित हो और चन्द्र तीसरे, ६ठे, १०वें या ११वें घर में हो (मुहूर्तचिन्तामणि, २।४४)। यह द्रष्टव्य है कि हमारे मध्यकालिक धर्मशास्त्रकारों ने आरम्भिक सरल उत्सवों एवं कृत्यों को मुहुर्त के विस्तारों से बोझिल बना डाला है। संस्कारों में हम सर्वप्रथम जातकर्म (बच्चे के जन्म के समय के कृत्य) को उठाते हैं। रत्नमाला में आया है--जातकर्म का सम्पादन मृदु, ध्रुव, क्षिप्र या चर नक्षत्र में होना चाहिए, सन्त लोग नामकरण के लिए बृहस्पति या शुक्र की चतुष्टय स्थिति (शिशु की कुण्डली के पहले, चौथे, सातवें या दसवें भाव) की प्रशंसा करते हैं (१३।२)। जन्म के विषय में कुछ लेखक (यथा, मुहूर्तमार्तण्ड, ४।१९) गण्डान्त की चर्चा करते हैं, जो जन्म, विवाह, यात्रा या आक्रमण के लिए अशुभ है; अर्थात १५ वीं तिथि का दो घटिकाओं तक प्रतिपदा से सायुज्य इसी प्रकार एक घटिका के अर्थ भाग तक जब कर्क एवं सिंह, या वृश्चिक एवं धनु, या मीन एवं मेष संयुक्त हों, और चार घटिका तक जब रेवती एवं अश्विनी, आश्लेषा एवं मघा, ज्येष्ठा एवं मूल एक-दूसरे से संयुक्त हों। ये गडान्त सायुज्य बच्चे के पिता या माता आदि के लिए हानिकारक होते हैं। इसी प्रकार के फल की घोषणा अश्लेिषा एवं मूल के कुछ भागों में हुए जन्म के विषय में भी की गयी है। नामकरण के विषय में मनु ने कहा है कि जन्म के उपरान्त १० वें या १२ वें दिन में या किसी शुभ तिथि में या शुभ गुण वाले मुहूर्त या नक्षत्र में इसका सम्पादन होना चाहिए। चौल या चूडाकर्म के विषय में आश्व० गृ० (१।१७।१) में आया है कि इसका सम्पादन कुलपरम्परा के अनुसार जन्म के उपरान्त तीसरे वर्ष में होना चाहिए; किन्तु मनु (२।२५) के अनुसार यह पहले या तीसरे वर्ष में सम्पादित हो सकता है। चौल, उपनयन, गो-दान एवं विवाह के विषय में आश्व० गृ० (१।४।१-२) ने कहा है कि इनका उचित काल है उत्तरायण, शुक्लपक्ष तथा शुभ नक्षत्र। आपस्तम्बगृह्यसूत्र (१६।३) में आया है कि चौल का सम्पादन जन्म के तीसरे वर्ष में पुनर्वसु नक्षत्र में होना चाहिए। किन्तु मध्यकालिक धर्मशास्त्रलेखकों ने बहुत-सी बातें भर दी हैं। देखिए राजमार्तण्ड (जिसमें इस विषय में ३२ श्लोक हैं), स्मृतिच० (१, पृ० २३), अपरार्क (पृ० २९, याज्ञ० १।११-१२)। ऐसे ही नियम प्रौढ लोगों के सामान्य क्षौर (बाल बनवाने) के विषय में भी हैं। कुछ श्लोक यों हैं-'निम्नोक्त नक्षत्र क्षौर के लिए हितकर हैं-हस्त, चित्रा, स्वाती, मृगशिरा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषक्, रेवती, अश्विनी, ज्येष्ठा, पुष्य एवं पुनर्वसु या जब नक्षत्र उदित होते समय चन्द्र से युक्त हो और ताराबल हो। मकर, धनु, कन्या, मिथुन या वृष के उदय के समय भी क्षौर का सम्पादन प्रतिपादित है। ऐसा करने से सम्पत्ति, शक्ति एवं बुद्धि का विकास होता है । जब किसी अन्य राशि के उदित होते समय क्षौर किया जाता है तो व्याधि, भय की उत्पत्ति होती है। राजा की आज्ञा, ब्राह्मण की सम्मति, विवाह के समय, मृत-सूतक पर, बन्दीगृह से छूटने पर तथा किसी वैदिक यज्ञ की दीक्षा लेने के समय क्षुरकर्म सब समय आज्ञापित है।' ४. मृदुध्रुवक्षिप्रचरेषु भेषु सूनोविधेयं खलु जातकर्म। गुरौ भृगौ वापि चतुष्टयस्थे सन्तः प्रशंसन्ति च नामधेयम् ॥ रत्नमाला (१३।२।। ५. नामधेयं दशम्यां तु द्वादश्यां वास्य कारयेत् । पुण्ये तिथौ मुहूर्ते वा नक्षत्रे वा गुणान्विते ॥मनु (२।३०)। ६. हस्तात्रयं मृगशिरः श्रवणत्रयं च पौष्णाश्विशुक्रगुरुभानि पुनर्वसू च । क्षौरे तु कर्मणि हितान्युदयक्षणे च युक्तानि चोडुपतिना यदि शस्तताराः॥ क्षौरं प्रशस्तं मृगचापलग्ने कन्याख्यलग्ने मिथुने वृष च। पुष्टिं बलं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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