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________________ अध्याय १७ धार्मिक कृत्यों के मुहूर्त अब हम धार्मिक कृत्यों एवं व्यक्तियों के कर्मों के लिए व्यवस्थित मुहूर्तों पर प्रकाश डालेंगे। किन्तु ऐसा करने में हम थोड़े ही कृत्यों एवं कर्मों का उल्लेख करेंगे । सर्वप्रथम कुछ सामान्य नियमों का उल्लेख आवश्यक है । आथर्वण ज्योतिष' का कथन है कि यदि व्यक्ति सफलता चाहता है तो उसे तिथि, नक्षत्र, करण एवं मुहूर्त पर विचार करके कर्म या कृत्य करना चाहिए; यदि उचित तिथि न मिल सके तो शेष तीनों पर आश्रित होना चाहिए, यदि प्रथम दो ( अर्थात् तिथि एवं नक्षत्र) न प्राप्त हो सकें तो अन्तिम दो का आश्रय लेना चाहिए, किन्तु यदि प्रथम तीन ( तिथि, नक्षत्र एवं करण) न प्राप्त हो सकें तो केवल मुहूर्त का सहारा लेना चाहिए, किन्तु यदि शीघ्रता हो और इन चारों में कोई उपलब्ध न हो सके तो ब्राह्मणों के उद्घोष से कि आज शुभ दिन है, उसे कर्म करना चाहिए और ऐसा कर देने से सफलता मिलती है। कुछ धार्मिक कृत्य प्रतिपादित कालों में ही होने चाहिए, उन परिस्थितियों में बृहस्पति एवं शुक्र की अवस्था ( बाल्य एवं वृद्धावस्था), बृहस्पति का सिंह राशि में होना, या दक्षिणायन तथा मलमास का ध्यान नहीं रखना चाहिए, यथा पुंसवन से लेकर अन्नप्राशन तक के कृत्यों में । राजमार्तण्ड में आया है कि 'आर्त अवस्था में ग्रहों एवं दिनों की ज्योतिष- स्थिति पर विचार नहीं करना चाहिए, भृगु ने कहा है कि ये नियम ( शुभ स्थितियों से संबंधित ) तभी माने जाने चाहिए जब जीवन स्वस्थ हो (बातें ठीक दशा में हों) ।' सोम, बुध, बृहस्पति एवं शुक्र वार सभी कर्मों के लिए शुभ फलदायक हैं; केवल वे ही कर्म रविवार, मंगलवार एवं शनिवार को सफल होते हैं जिनको करने के लिए वे प्रतिपादित हों अथवा उचित ठहराये गये हों । किन्तु नारदीय पुराण ( ११५६।३५९-६०) का कथन है कि बुधवार, बृहस्पतिवार एवं शुक्रवार सर्वोत्तम हैं, रविवार एवं सोमवार की स्थिति मध्यम है तथा अन्य दो, मंगलवार एवं शनिवार उपनयन के लिए निन्द्य ठहराये गये हैं । सामान्य नियम यह है कि सभी संकल्पित कर्म सफल होते हैं यदि वे तब किये जायँ जब लग्न से तीसरे, छठे, १० वें एवं ११ वें घर किसी शुभ ग्रह के साथ हों या उन पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि हो और जब लग्न १. चतुर्भिः कारयेत्कर्म सिद्धिहेतोविचक्षणः । तिथिनक्षत्रकरणम् तेनेति निश्चयः । दूरस्थस्य मुहूर्तस्य क्रिया च त्वरिता यदि । द्विजपुण्याहघोषेण कृतं स्यात्सर्वसम्पदम् ॥ आथर्वणज्योतिष ( ७।१२ एवं १६ ) । २. प्रहवत्सरशुद्धिश्च नातं कालमपेक्षते । स्वस्थे सर्वमिदं चिन्त्यमित्याह भगवान्भृगुः ॥ राजमार्तण्ड (श्लोक ३८८ ) । ३. सोमसौम्यगुरुशुक्रवासराः सर्वकर्मसु भवन्ति सिद्धिदाः । भानुभौमशनिवासरेषु च प्रोक्तमेव खलु कर्म सिध्यति ॥ रत्नमाला ( ३।१५); आचार्य सौम्यकाव्यानां वाराः शस्ताः शशीनयोः । वारौ तु मध्यमौ चैव व्रतेन्यौ निन्वितौ मतौ ॥ नारदीयपुराण (११५६।३५०-६९) । ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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