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धर्मशास्त्र का इतिहास
लिए वर्ष, मास, दिन, घण्टा या घटिका एवं जन्म का स्थान जानना आवश्यक है। बम्बई, पूना या कलकत्ता जैसे नगरों के अक्षांशों एवं देशान्तरों के आधार पर पंचांग बनते हैं। ये ऐसी तालिकाओं (सारणियों) का निर्माण करते हैं। जिनके अनुसरण से व्यक्ति के जन्म- काल की राशि का ज्ञान होता है। किन्तु इन नगरों की तालिकाओं से अन्यत्र बने पंचांगों में उचित लग्न के ज्ञान को यथार्थता नहीं पायी जा सकती । जन्म-पत्र वर्ग आकृतियों में या वृत्तआकृतियों में बनते हैं, किन्तु वर्ग आकृतियों में भी लग्न रखने के कई भेद हैं (जन्म के समय क्षितिज में उदित होती हुई राशि ही लग्न है) ।
सौम्पैर्नष्टप्राप्तिः लध्वागमनं गुहसिताभ्याम् ॥' (५ एवं ३५) । ३५ वें श्लोक में प्रयुक्त 'लग्नात्' का अर्थ है प्रश्न के समय का लग्न । उसी ग्रन्थ का ५५ वाँ श्लोक है--'अंशकाज्ज्ञायते द्रव्यं द्रेष्काणंस्तस्कराः स्मृताः । राशिभ्यः कालदिग्देशा वयो जातिश्च लग्नपात् ॥' इसका अर्थ है 'प्रश्न करते समय के लग्न के नवांश से हृत वस्तु का संकेत मिलता है, लग्न के द्रेष्काणों से चोर की विशेषताओं का पता चलता है (जैसा कि बु० जा० अध्याय २७ में उल्लिखित है), राशियों से समय, दिशा एवं स्थान का परिज्ञान होता है, तथा लग्न के स्वामी से चोर की अवस्था एवं जाति जानी जाती है।'
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