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________________ भारतीय, बेबिलोनी एवं यवन ज्योतिष का विकास और मिश्रण २९५ मण्डलीय रेखा के आरम्भ में था, जो मेष राशि की आकृति से सर्वथा मिलती-जुलती थी। भारतीय ज्योतिविद्, जब मेष आदि राशियों का प्रयोग करने लगे, तो वे राशियों की गणना में कृत्तिका से आरम्भ करने की परिपाटी छोड़ कर अश्विनी नक्षत्र से करने लगे और उसे प्रथम नक्षत्र के रूप में मानने लगे, यद्यपि उत्तरा-भाद्रपदा की अग्रगति के कारण वासन्तिक विषुव का बिन्दु पीछे रह गया था। ईसा पूर्व की शतियों में राशि-पद्धति के विषय में भारतीय ज्योतिषियों के प्रारम्भिक प्रयासों का विकास जानना एवं उसका वर्णन करना कठिन है, क्योंकि वराहमिहिर के श्रेष्ठ ग्रन्थ बृहज्जातक ने सभी पूर्ववर्ती ग्रन्थों को ग्रस लिया और वे क्रमशः काल के मुख के ग्रास हो गये, और यही बात टाल्मी के दो ग्रन्थों 'सिण्टैक्सिस' (या एल्मागेस्ट) एवं 'टेट्राबिब्लोस' के विषय में भी है , क्योंकि उन्होंने भी अपनी श्रेष्ठता से अपने पूर्ववर्ती यूनानी ज्योतिष-ग्रन्थों की श्री छीन ली और वे इन दोनों के प्रभाव के कारण क्रमशः विलुप्त हो गये। यद्यपि सभी विद्वानों ने यह माना है कि यूनानी कुण्डली-ज्योतिष बेबिलोनी ऐस्ट्रॉनॉमी (ज्योतिःशास्त्र) एवं ऐस्ट्रॉलॉजी (फलित ज्योतिष) से प्रभावित हुआ था, किन्तु दोनों के बीच की सम्बन्ध-रेखा विलप्त हो गयी है। यह सम्भव है कि भारतीय एवं यनानी पद्धतियों में बहत-सी समान बातें पायी जायँ, क्योंकि दोनों पर बेबिलोनी पद्धति का प्रभाव था। किन्तु ऐसा कहना कि भारतीय पद्धति, जो वराहमि द्वारा विकसित हुई, फिर्मिकस एवं पौलस अलेक्जैण्डिनस से उधार ली गयी, सर्वथा भ्रामक है। प्रो० नेयुगेबावर ने, ऐसा कहते हुए कि सूर्य सिद्धान्त यूनानी केन्द्रभ्रष्ट एवं परिधि-विधियों (एक्सेण्ट्रिक एवं एपिसाइक्टिक डीवाइसेज) पर अवलम्बित है, स्वीकार किया है कि वे विधियाँ भारतीयों द्वारा परिमार्जित की गयीं। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि अनुकरण नहीं हुआ प्रत्युत प्रारम्भिक प्रेरणा का बुद्धिमानी से परिमार्जन किया गया। हमने पहले ही देख लिया है कि बृहज्जातक द्रेष्काणों एवं भावों (कुण्डली के स्थानों) के बारे में फिर्मिकस से मतैक्य नहीं रखता। प्रस्तुत लेखक की यही प्रमुख धारणा है और प्रतिपादन है कि भारतीय ज्योतिष में टाल्मी के पूर्व ही राशियों एवं भावों के विषय में विकास हो गया था। कुण्डलियों अथवा जन्मपत्रों का निर्माण केवल व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं है, प्रत्युत कम्पनियों, जहाजों, पशुओं, गृह-नीवों, नगरों एवं देशों के जन्मपत्र भी बनते हैं। जब कोई व्यक्ति कोई बात जानने के लिए ज्योतिषी के पास जाता है तो ज्योतिषी प्रश्न करने के काल की राशि (लग्न) का ज्ञान करता है। उस दिन एवं काल के ग्रहों के स्थानों की गणना करता है और तब शकुन एवं भावी लक्षण आदि बताता है। जन्म-पत्रिका बनाने के (राशि के अर्षांश) के स्वामी हो सकते थे, किन्तु बृहज्जातक (१३११-१२) में ऐसी बात नहीं है। (२) यवनों के अनुसार चन्द्र कभी भी हानिकर ग्रह नहीं है, किन्तु बृ० जा० (२५) इसे कुछ बातों में अहितकर मानता है; (३) यवनों ने मंगल को सात्त्विक माना है, किन्तु बृ० जा० (२७) ने इसे तामसिक माना है; (४) यवनों के अनुसार ग्रह आपस में केवल मित्र या शत्रु हो सकते हैं, किन्तु बृ० जा० (२।१५) में आया है कि वे न तो मित्र ही हो सकते हैं और न शत्रु; (५) यवन एवं वराह (बु० जा० २।१८) ग्रहों की तात्कालिक मित्रता एवं शत्रुता के विषय में मतैक्य नहीं रखते; (६) यवनों ने वज्रयोग की चर्चा की है, किन्तु बृ० जा० (१२।३ एवं ६) के मत से ऐसा योग असम्भव है। (७) यवनों के मत से केवल कुम्भ-द्वादशांश अशुभ है, किन्तु बृ० जा० (२१॥३) ने इसमें दोष दिखाया है। २७. प्रश्न-काल से सम्बन्धित ज्योतिष पर दोप्रसिद्ध ग्रन्थ हैं, वराहमिहिर के पुत्र पृथुयशा को षट्पञ्चाशिका एवं उत्पल की आसप्तति। प्रथम ग्रन्थ के दो श्लोक ये हैं--'होरास्थितः पुर्णतनुः शशांको जीवेन दृष्टो यदि वा सितेन । क्षिप्रं प्रणष्टस्य करोति लब्धि लाभोपयातो बलवा शुभश्च ॥ दूरगतस्यागमनं सुतधनसहजस्थितहैर्लग्नात्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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